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धर्म एवं दर्शन >> कृपा

कृपा

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9812

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


हैं, पर वह पूरा नहीं हो पाता। यही वे अवसर होते हैं जो हमें आत्मचिंतन की प्रेरणा दे सकते हैं- कहीं कोई कमी तो नहीं रह गयी?

गोस्वामीजी कहते हैं कि अंत में विश्वामित्रजी को भी सोचना पड़ा, वे चिन्ताग्रस्त हो गये। गोस्वामीजी विश्वामित्रजी कौन हैं, यह बताते हुए कहते हैं कि -

पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।1/208


विश्वामित्रजी का भय निवारण करने के लिये जाते हुए दोनों भाई ऐसे लग रहे हैं कि मानो दो सिंह ही चले जा रहे हों। फिर गोस्वामीजी उस समय भगवान् राम की क्या विशेषता है, इसका वर्णन करते हुए कहते हैं --

कृपा सिंधु रघुबीर, भगवान् राम तो कृपासिंधु हैं। मानो गोस्वामीजी संकेत करना चाहते हैं कि साधना और पुरुषार्थ का पर्व पूरा हो गया और अब कृपा के प्राकट्य की बेला है। कृपा का यह पर्व, मार्ग में ही, उसी समय से प्रारम्भ हो जाता है जब ताड़का सामने आती है। ताड़का और उसके दोनों बेटे ही मुनियों के यज्ञ को नष्ट करनेवालों में प्रमुख थे। भगवान् राम ने ताड़का को सामने आते हुए देखा तो विश्वामित्रजी से पूछा - गुरुदेव यह कौन है? विश्वामित्रजी ने कहा - राम! यह ताड़का है, जो यज्ञ में बाधा उत्पन्न करती है, तुम इसका वध कर दो! भगवान् राम ने एक ही बाण से ताड़का का वध कर दिया। इसे देखकर तो यही लगता है कि भगवान् राम एक न्यायाधीश की तरह अपराध करने वाले को कठोर दण्ड देने में यत्किंचित् भी संकोच नहीं करते! यहाँ तक कि वे दण्ड देने में अपराधी के नारी या पुरुष होने के भेद का भी स्मरण नहीं रखते! ऐसा लगता है कि यहाँ प्रभु की दृष्टि कुछ इस तरह है कि जो अपराध करेगा वह तो दण्ड का भागी होगा ही, चाहे स्त्री हो या पुरुष हो! यह तो एक कठोर न्यायाधीश का स्वरूप है।

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