धर्म एवं दर्शन >> कृपा कृपारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
कृपा
मेरे माध्यम से निःसृत प्रवचनों में मनोरंजन जैसी बातों का न तो प्रयासपूर्वक कोई समावेश ही है और न ही इसे मधुर बनाने के लिये किसी बाह्य साधन उपकरण का आश्रय ही लिया जाता है। मेरे प्रिय शिष्य मुझे बता रहे थे कि जो सज्जन इस प्रवचन-माला को टेप पर रिकॉर्ड कर रहे हैं (संभवत: वे कर्नाटक के हैं और हिन्दी भाषा ठीक से समझ-बोल नहीं पाते), वे कह रहे थे - यह गाता नहीं है, बजाता नहीं है, और हँसता नहीं है फिर भी मालूम नहीं इतना ज्यादा लोग इधर कैसे आ जाता है? उनका यह आश्चर्य स्वाभाविक ही है, क्योंकि सामान्यतया लोगों को यही लगता है कि कथा को मधुर बनाने के लिये इन सबकी आवश्यकता है। पर ऐसी बात नहीं है। भगवान् की कथा स्वयं ही अत्यन्त मधुर है। आप लोग गर्मी का कष्ट सहन करते हुए भी इतनी बड़ी संख्या में एकाग्रतापूर्वक कथा-श्रवण करने के लिये आते हैं, इसके द्वारा भगवत्कथा की महिमा और उसमें आप सबकी श्रद्धावृत्ति ही तो प्रकट होती है।
हम कह सकते हैं कि काम और क्रोध के बाद लोभ ही तीसरा प्रबल विकार है। रामचरितमानस में जहाँ गोस्वामीजी मानस रोगों का वर्णन करते हैं, वहाँ पर वे 'लोभ' का वर्णन करते समय उसके साथ एक शब्द, विशेष रूप से जोड़ते हुए कहते हैं कि -
क्रोध पित्त नित छाती जारा।। 7/12/30
काम बात है, क्रोध पित्त है और जो 'अपार' लोभ है, वह कफ है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'अपार' शब्द यहाँ पर केवल लोभ के साथ जोड़ा गया है, काम या क्रोध के साथ नहीं। इसका अभिप्राय है कि काम और क्रोध कभी अपार हो ही नहीं सकते। मनुष्य यदि चाहे तो भी दिन-रात काम में ही डूबा नहीं रह सकता। इसी प्रकार व्यक्ति के लिये यह संभव नहीं है कि वह निरंतर क्रोध में ही स्थित रहे। पर यह लोभ ही ऐसा विकार है कि व्यक्ति जीवन भर, चौबीसों घंटे इसमें डूबा रह सकता है। अन्य सब दोषों की तो कोई न कोई सीमा है, पर लोभ की तो कोई सीमा ही नहीं है, इसलिए सचमुच वह तो 'अपार' ही है।
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