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			 धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
जब जीव ईश्वर का अंश है तो ईश्वर में जो बातें हैं, वे जीव में भी विद्यमान हैं, पर उसके अन्तःकरण में एक ऐसी भ्रान्ति हो गयी है कि उसने अपने आपको बँधा हुआ मान लिया है। परशुरामजी के प्रसंग का तात्पर्य यह है कि ईश्वर का स्वरूप भी जो प्रत्यक्ष रूप से ब्रह्म का साक्षात् आवेशावतार माना जाता है, उनके जीवन में भी जब भ्रान्ति हो गयी तो हम सब लोगों के जीवन में भी कौन-सी ऐसी समस्याएँ आती हैं कि हम ईश्वर से सम्बद्ध होते हुए भी स्वयं अपने आपको दूर मान बैठते हैं, भिन्न मान बैठते हैं और उसका सूत्रात्मक क्रम क्या है? इस पर संक्षेप में दृष्टि डालें।
परशुरामजी की पहली समस्या है, धनुष टूटने पर उनका दुःखी होना। धनुष शंकरजी का था, तो टूटने पर शंकरजी को दुःख होना चाहिए, पर शंकरजी ने जब धनुष-भंग का समाचार सुना तो बड़े प्रसन्न हो गये, परन्तु उनके शिष्य परशुरामजी क्रोध में भर गये। धनुष क्या है? उसके लिए गोस्वामीजी ने बड़ा सुन्दर शब्द चुना। विश्वामित्रजी ने राम-लक्ष्मण को परशुरामजी के चरणों में प्रणाम करने को कहा तो श्रीराम के मन में कहीं यह वृत्ति नहीं थी कि मैंने विश्वविजय प्राप्त की है, मैं इनके चरणों में क्यों प्रणाम करूँ? दोनों ने साष्टांग प्रणाम किया और जब खड़े हुए तो परशुरामजी की दृष्टि श्रीराम की ओर गयी तो उनको इतना सुख मिला कि –
    रामहि चितइ रहे थकि लोचन।
    रूप  अपार  मार  मद  मोचन ।। 1/268/8
राम की सुन्दरता को देखते ही रह गये। फिर अचानक ही बदल गये। क्रोध आ गया, बिगड़ खड़े हुए, जनक को फटकारने लगे। अभी इतने आनन्दित थे और अभी क्या हो गया? गोस्वामीजी ने व्यंग्यात्मक वाक्य लिखा –
    देखे चापखंड महि डारे। 1/269/2
			
						
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