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धर्म एवं दर्शन >> प्रसाद

प्रसाद

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :29
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9821

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प्रसाद का तात्विक विवेचन


जिस व्यक्ति की नासिका आपके प्रसाद की सुगन्ध का निरन्तर अनुभव करती है-

तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं।
प्रभु प्रसाद पट अन धरहीं।। 2/126/2

यहीं प्रसाद शब्द की पुनरावृत्ति की गयी है। जो भोजन प्रभु को अर्पित करके प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं, जो वस्त्राभूषण भी प्रसाद के रूप में धारण करते हैं, आप उनके मन में निवास कीजिए। इस प्रसंग में भी प्रसाद शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रसाद में जो मिठास है, उसमें भी उद्देश्य भावना का है। प्रसाद क्या है? प्रसाद के पीछे भावना क्या है? और प्रसाद के पीछे विचार क्या है? जब मिष्ठान्न के रूप में या फल के रूप में आप प्रसाद ग्रहण करते हैं तो सम्भवत: उसमें आपको मिठास की अनुशुतइ होती है, तृप्ति का अनुभव होता है। यदि हम गम्भीरता से विचार करके देखें तो पायेंगे कि मनुष्य भूखा है।

अशोकवाटिका में हनुमान्जी ने यही कहा कि माँ! मैं अत्यन्त भूखा हूँ। वाटिका में सुन्दर फल भी लगे हुए हैं। आप कृपाकर आज्ञा दीजिए कि मैं इन फलों को खाकर अपनी भूख मिटाऊँ। उत्तर में माँ ने जो वाक्य कहे, उनके अन्तरंग अर्थ पर आप विचार कीजिए। माँ ने कहा कि फलों के साथ-साथ वाटिका में जो रखवाले हैं वे तो बड़ी ही दुष्ट प्रकृति के हैं, वे तुम्हारे ऊपर प्रहार करेंगे। तब हनुमान्जी ने कहा कि-

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जीं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।। 5/ 16,6

और तब माँ ने भी एक सूत्र दे दिया कि-

रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु। 5/ 17

यद्यपि प्रसाद शब्द का प्रयोग यहाँ नहीं है, परन्तु भाव वही है कि तुम मधुर फल खाओ तथा उसके पहले उसको प्रभु का प्रसाद बनाओ।

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