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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


बड़े ही भावमय शब्दों में उन्होंने कहा –

थोरेहि बात पितहि दुख भारी।
होतु प्रतीत न मोहि महतारी।।

श्री भरत की भी स्थिति ठीक वैसी ही है। गुरु जी के प्रस्ताव पर उन्हें पूर्ण विश्वास होते हुए भी अविश्वसनीय-सा लग रहा है। आश्चर्य हो रहा है कि क्या मुझ-जैसे तुच्छ व्यक्ति को “अरध तजहिं बुध सरबस जाता” के सिद्धान्तानुसार ‘अर्ध’ माना जाता है? क्या यह सम्भव है कि मेरे वन गमन मात्र से हमारे महामहिम लौट जाएँ? ओ हो! कितनी सरल बात है। इसलिए वे सरलता भरे शब्दों में कहते हैं – “गुरुदेव! यदि आप सच कह रहे हैं? (मानो उन्हें विश्वास नहीं कि ऐसे सरल उपाय से समस्या हल हो जाएगी) तो इसे कार्यरूप में परिणित कीजिए।”

श्री भरत की सरलता और स्नेहमयी वाणी को सुनकर समस्त सभासदों सहित मुनिराज ‘विदेह’ (देह विस्मरण) हो गए। स्वीकृति की आशा होते हुए भी महर्षि को इस रूप में इस भावना के साथ स्वीकृति की कल्पना न थी कि ‘यह तो सरल उपाय है और मैं जन्मभर वन में निवास करूँ।’ मुनिराज इस प्रस्ताव द्वारा अपने को मुक्त कर लेना चाहते थे, पर हुआ उलटा। श्री भरत ने ‘कीजिये बचनमाण’ कहकर गम्भीर बन्धन में डाल दिया।

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