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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
कैसा विलक्षण दैन्य है। धन्य है भक्तराज, बड़ी साहिबी में नाथ बड़े सावधान हो इसे छोड़ क्या कहा जा सकता है। जिनके नाम की माला का प्रभु स्वयं नित्य जाप करते हों, जिनका नाम उन्हें अधीर बना देता हो, जिनकी प्रशंसा में प्रभु रात्रि-दिवस बिता देते हों, उनका यह सोचना कि प्रभु मेरा नाम सुनकर कहीं चले न जाएँ, यह प्रभु के करुणामय स्वभाव पर अविश्वास नहीं, अपनी लघुता पर विश्वास का सूचक है। भक्त चूड़ामणि गोस्वामी जी भी श्री विनय पत्रिका में कुछ ऐसा ही कहते हैं –
स्वामी की सेवक-हितता सब, कछु निजसाई दुहाई।
निजमति-तुला तौलि देखी, भई मेरेहि दिसि गरुआई।।
उपर्युक्त पंक्तियों का लक्ष्य प्रभु की हीनता की लघुता बताना नहीं है, अपने स्वामीद्रोह की गुरुता बताना है। इसलिए किसी भी प्रसंग पर विचार करते समय हमें वक्ता के लक्ष्य और अपने स्वभाव को विस्मृत नहीं करना चाहिए। श्री भरत जी की इन सपथों को पढ़कर हृदय भर आता है। इतना बड़ा भक्त कितना सरल, कितना भोला होता है। उसे अपनी विशेषता का कहीं ज्ञान ही नहीं होता। और सच भी तो है – जो भक्त प्रभु की विशेषता ढूँढ़ते हैं, उन्हें दीखने वाली बुराइयों के लिए भी तो कोई स्थान होना चाहिए। और तब वे उसका पात्र ‘स्व’ को बनाते हैं –
गुन तुम्हार समुझइ निजदोसा।
जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।
इसके पश्चात् तो श्री भरत जी का विलक्षण चरित्र लोगों की दृष्टि में आने लगता है। उनके सामने एक महान प्रलोभन था, अयोध्या का विशाल राज्य। वह भी अन्यायपूर्वक नहीं, सर्वसम्मति से। मरणाशौच से निवृत्त होने के बाद महर्षि वशिष्ठ की प्रेरणा से समग्र पुरवासी राज-सभा में एकत्र होते हैं और सबकी ओर से प्रतिनिधित्व करते हुए कुशल वचन श्री वशिष्ठ जी उन्हें राज्य स्वीकार करने की प्रेरणा करते हैं। उनरे सहमत होने के पश्चात् किसी अधर्म का संकेत वहाँ शेष नहीं रह जाता है। वह राज्यमद, जिसने अनेक पुरुषों को पथभ्रष्ट बनाया, नहुष, इन्द्र आदि जिसके एक थपेड़े को न संभाल सके, वह राज्यश्री आज अपने सम्पूर्ण श्रृंगार के साथ मनमोहक रूप में उन्हें लुभाने को प्रस्तुत है, पर प्रेमव्रती भरत को वह विचलित न कर सकी। उनके समक्ष जो कठिन परिस्थिति है, उसकी कल्पना करना भी आज कठिन है।
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