लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन

प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

।। श्री राम: शरणं मम ।।

अमृत-मन्थन

गोस्वामी जी की लेखनी से जिन अनेक उत्कृष्ट पात्रों का चित्रण हुआ है असंदिग्ध रूप में भरत उनमें सर्वश्रेष्ठ हैं। और इसका कारण है श्री भरत के साथ गोस्वामी जी की पूर्ण एकात्मकता। यूँ तो किसी भी पात्र का यथार्थ चित्रण बिना उससे तादात्म्य की अनुभूति के होना सम्भव नहीं है। फिर भी, उस तादात्म्य में भी एक भेद तो होता ही है। साधारण जीवन में एक पात्र से स्वभावगत भिन्नता होते हुए भी महान् लेखक उससे अल्पकालिक एकता प्राप्त कर लेता है। और वर्णन के पश्चात् उससे पृथक् हो जाता है। पर हम दूसरी ओर किसी ऐसे पात्र की कल्पना करें जिससे उसकी एकता सर्वकालिक हो, जो साहित्य में ही नहीं उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लेखक का चिरसंगी हो, जिसकी प्रत्येक क्रिया में स्वयं साहित्यकार का जीवन साकार हो उठे वस्तुतः यही तादात्म्य पूर्ण होता है। और तब स्वभावत: ऐसे पात्र का चित्रण अद्वितीय होता है। मानस के श्री भरत से गोस्वामी जी का तादात्म्य ठीक इसी प्रकार का है।

भक्ति के विविध रूपों का चित्रण मानस में किया गया है। और विविध धाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं पृथक्-पृथक् पात्र पर भक्ति का वह स्वरूप जो स्वयं गोस्वामी जी को अभीष्ट है, प्रिय है, उसकी समग्रता भरत के जीवन में ही चरितार्थ होती है। स्वयं अपने लिए उन्होंने जिस जीवन-दर्शन का आश्रय लिया, साधन की जिस प्रणाली को अपनाया, वह भरत-चरित्र में निहित है।

वस्तुत: गोस्वामी जी जिस समन्वयी प्रणाली के समर्थक हैं उसका मूल स्रोत भरत-चरित्र से ही लिया गया है। भरत-चरित्र में कर्म, ज्ञान और भक्ति की जो त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है, वह अनोखी है। देखा यही जाता है कि इन तीनों में किसी एक की स्वीकृति व्यवहारत: अन्यों की अस्वीकृति बन जाती है। कर्म और कर्त्तव्य की दुहाई देने वाला भक्ति की उपेक्षा करता है। क्योंकि ऐसा लगने लगता है कि दयालु ईश्वर की स्वीकृति से कर्म की वह सजग प्रेरणा समाप्त हो जाती है जो ‘निजकृत कर्म भोग सब भ्राता’ के स्वीकार करने पर बनी रहती है। अत: बहुधा कर्त्तव्य-परायणता का आग्रही ‘भक्ति’ को दुर्बल व्यक्ति का धर्म समझता है।

Next...

प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book