धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
‘तदात्मिका’ शब्द भी बड़ा ही भावपूर्ण है। वियोग की पराकाष्ठा में चिन्तन की अधिकता से तद्रूप हो जाना स्वाभाविक है। और ऐसी परिस्थिति में अपने आप ही ऐसी लीला होने लगती है। हाँ, तो श्री भरत जी ने अपने प्राणधन प्रभु के लिए यह खेल प्रारम्भ किया था। इसी मिस से बाल्यकाल में प्रभु द्वारा की गई उनके साथ अनेक क्रीड़ाओं का स्मरण कर वे अपने को प्रभु के निकट ही देखने की भावना में निमग्न थे। फिर भरत जी उन गम्भीर प्रेमियों में भी तो हैं जो लोक की तो कथा ही क्या, प्रियतम पर भी अपने प्रेम को व्यक्त करना उचित नहीं समझते। उनकी उच्चाकांक्षा का चित्रण इन चौपाइयों में होता है-
जानहुँ राम कुटिल करि मोही ।
लोग कहउ गुरु साहिब द्रोही ।।
सीता राम चरन रति मोरे ।
अनुदिन बड़उ अनुग्रह तोरें ।।
वे नहीं चाहते थे कि लोग उन्हें भक्त समझें, प्रेमी समझें। उनके हृदय में प्रेम का विशाल समुद्र लहरा रहा था। पर वह था पूर्ण शान्त। प्रभु की पत्रिका मानो पूर्णचन्द्र बनकर इस प्रशान्त समुद्र को उद्वेलित करने आयी थी।
समाचार सुनकर दौड़े हुए अनुज के साथ वे सभामण्डप में आये। दौड़ते हुए आने में उत्साह था, पर वहाँ लोगों की भीड़ देख स्नेह, लज्जा, संकोच, और गम्भीरता के बोझ से चरण धीमे पड़ गये। पितृचरणों में नम्रतापूर्व प्रणाम करके रुद्ध कण्ठ को किसी प्रकार स्पष्ट करते हुए बोले-
(पूछत अति सनेह सकुचाई ।) तात कहाँ ते पाती आई ।।
कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहि देश ।
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