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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


बम्बई की इस यात्रा में मैं वहाँ रहने वाले अपने बहनोई से मिलने गया। वे बीमार थे। घर में गरीबी थी। अकेली बहन से उनकी सेवा-शूश्रूषा हो नहीं पाती थी। बीमारी गंभीर थी। मैंने उन्हें अपने साथ राजकोट चलने को कहा। वे राजी हो गया। बहन-बहनोई को लेकर मैं राजकोट पहुँचा। बीमारी अपेक्षा से अधिक गंभीर हो गयी। मैंने उन्हे अपने कमरे में रखा। मैं सारा दिन उनके पास ही रहता था। रात में भी जागना पड़ता था। उनकी सेवा करते हुए मैं दक्षिण अफ्रीका का काम कर रहा था। बहनोई का स्वर्गवास हो गया। पर उनके अंतिम दिनो में उनकी सेवा करने का अवसर मुझे मिला, इससे मुझे बड़ा संतोष हुआ।

शुश्रूषा के मेरे इस शौक ने आगे चलकर विशाल रुप धारण कर लिया। वह भी इस हद कि उसे करने में मैं अपना धंधा छोड देता था। अपनी धर्मपत्नी को और सारे परिवार को भी उसमें लगा देता था। इस वृति को मैंने शौक कहा हैं, क्योंकि मैंने देखा हैं कि जब ये गुण आनन्ददायक हो जाते हैं तभी निभ सकते हैं। खींच-तानकर अथवा दिखावे के लिए या लोकलाज के कारण की जाने वाली सेवा आदमी को कुचल देती हैं, औऱ ऐसी सेवा करते हुए भी आदमी मुरझा जाता हैं। जिस सेवा आनन्द नहीं मिलता, वह न सेवक को फलती हैं, न सेव्य को रुचिकर लगती हैं। जिस सेवा में आनन्द मिलता है, उस सेवा के सम्मुख ऐश-आराम या धनोपार्जन इत्यादि कार्य तुच्छ प्रतीत होते है।

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