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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


ब्रह्मचर्य के सम्पूर्ण पालन का अर्थ हैं, ब्रह्मदर्शन। यह ज्ञान मुझे शास्त्र द्वारा नहीं हुआ। यह अर्थ मेरे सामने क्रम-क्रम से अनुभव सिद्ध होता गया। उससे सम्बन्ध रखनेवाले शास्त्रवाक्य मैंने बाद में पढ़े। ब्रह्मचर्य में शरीर-रक्षण, बुद्धि-रक्षण औऱ आत्म का रक्षण समाया हुआ है, इसे मैं व्रत लेने के बाद दिन-दिन अधिकाधिक अनूभव करने लगा। अब ब्रह्मचर्य को एक घोर तपश्चर्य के रुप में रहने देने के बदले उसे रसमय बनाना था, उसी के सहारे निभना था, विशेषताओं के मुझे नित-नये दर्शन होने लगे।

इस प्रकार यद्यपि मैं इस व्रत में से रस लूट रहा था, तो भी कोई यह माने कि मैं उसकी कठिनाई का अनूभव नहीं करता था। आज मुझे छप्पन वर्ष पूरे हो चुके हैं, फिर भी इसकी कठिनता का अनुभव तो मुझे होता ही हैं। यह एक असिधारा-व्रत है, इसे मैं अधिकाधिक समझ रहा हूँ और निरन्तर जागृति की आवश्यकता का अनुभव करता हूँ।

ब्रह्मचर्य का पालन करना हो तो स्वादेन्द्रिय पर प्रभुत्व प्राप्त करना ही चाहिये। मैंने स्वयं अनुभव किया है कि यदि स्वाद को जीत लिया जाय, तो ब्रह्मचर्य का पालन बहुत सरल हो जाता है। इस कारण अब से आगे के मेरे आहार-संबंधी प्रयोग केवल अन्नाहार की दृष्टि से नहीं, बल्कि ब्रह्मचर्य की दृष्टि से होने लगे। मैंने प्रयोग करके अनुभव किया कि आहार थोडा, सादा, बिना मिर्च-मसाले और प्राकृतिक स्थिति वाला होना चाहिये। ब्रह्मचारी का आहार वनपक्व फल है, इसे अपने विषय में तो मैंने छह वर्ष तक प्रयोग करके देखा है। जब मैं सूखे और हरे वन-पक्व फलो पर रहता था, तब जिस निर्विकार अवस्था का अनुभव मैंने किया, वैसा अनुभव आहार में परिवर्तन करके के बाद मुझे नहीं हुआ। फलाहार के दिनो में ब्रह्मचर्य स्वाभाविक हो गया था। दुग्धाहार के कारण वह कष्ट-साध्य बन गया है। मुझे फलाहार से दुग्धाहार पर क्यों जाना पड़ा, इसकी चर्चा मैं यथास्थान करुँगा। यहाँ तो इतना कहना काफी हैं कि ब्रह्मचारी के लिए दूध का आहार व्रत पालन में बाधक हैं, इस विषय में मुझे शंका नहीं हैं। इसका कोई यह अर्थ न करे कि ब्रह्मचारी मात्र के लिए दूध का त्याग इष्ट हैं। ब्रह्मचर्य पर आहार का कितना प्रभाव पड़ता हैं, इसके संबंध में बहुत प्रयोग करने की आवश्यकता हैं। दूध के समान स्नायु-पोषक और उतनी ही सरलता से पचने वाला फलाहार मुझे अभी तक मिला नहीं, और न कोई वैद्य, हकीम या डॉक्टर ऐसे फलो अथवा अन्न की जानकारी दे सका हैं। अतएव दूध को विकारोंत्पादक वस्तु जानते हुए भी मैं उसके त्याग की सलाह अभी किसी को नहीं दे सकता।

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