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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इस आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज में घर-बार साफ रखने के महत्त्व को न्यूनाधिक मात्रा में स्वीकार कर लिया गया। अधिकारियों की दृष्टि में मेरी साख बढ़ी। वे समझ गये कि मेरा धन्धा केवल शिकायत माँगने का ही नहीं हैं, बल्कि शिकायते करने या अधिकार माँगने में मैं जितना तत्पर हूँ, उतना ही उत्साह और ढृढता भीतरी सुधार के लिए भी मुझ में हैं।

पर अभी समाज की वृत्ति को दूसरी एक दिशा में विकसित करना बाकी था। इन उपनिवेशवासी भारतीयो को भारतवर्ष के प्रति अपना धर्म भी अवसर आने पर समझना और पालना था। भारतवर्ष तो कंगाल हैं। लोग धन कमाने के लिए परदेश जाते हैं। उनकी कमाई का कुछ हिस्सा भारतवर्ष को उसकी आपत्ति के समय मिलना चाहिये। सन् 1817 में यहाँ अकाल पडा था और सन् 1899 में दूसरा भारी अकाल पड़ा। इन दोनों अकालो के समय दक्षिण अफ्रीका से अच्छी मदद आयी थी। पहले अकाल के समय जितनी रकम इकट्ठा हो सकी थी, दूसरे अकाल के मौके पर उससे कहीं अधिक रकम इकट्ठा हुई थी। इस चंदे में हमने अंग्रेजो से भी मदद माँगी थी और उनकी ओर से अच्छा उत्तर मिला। गिरमिटिया हिन्दुस्तानियो ने भी अपने हिस्से की रकम जमा करायी थी।

इस प्रकार इन दो अकालो के समय जो प्रथा शुरू हुई वह अब तक कायम है, औऱ हम देखते है कि जब भारतवर्ष में कोई सार्वजनिक संकट उपस्थित होता है, तब दक्षिण अफ्रीका की ओर से वहाँ बसने वाले भारतीय हमेशा अच्छी रकमे भेजते हैं।

इस तरह दक्षिण अफ्रीका के भारतीयो की सेवा करते हुए मैं स्वयं धीरे-धीरे कई बाते अनायास ही सीख रहा था। सत्य एक विशाल वृक्ष है। ज्यो ज्यो उसकी सेवा की जाती हैं, त्यो-त्यो उसमें से अनेक फल पैदा होते दिखायी पड़ते हैं। उनका अन्त ही नहीं होता। हम जैसे-जैसे उसकी गहराई में उतरते जाते हैं, वैसे-वैसे उसमें से अधिक रत्न मिलते जाते हैं, सेवा के अवसर प्राप्त होते रहते हैं।

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