| जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
 | 
			 | 
महात्मा गाँधी की आत्मकथा
 सन् 1896 में जब मैं देश आया था, तब भी भेट मिली थी। पर इस बार की भेटो से और सभाओ के दृश्य से मैं अकुला उठा। भेंटों में सोने-चाँदी की चीजे तो थी ही, पर हीरे की चीजें भी थी। 
 
 इन सब चीजों को स्वीकार करने का मुझे क्या अधिकार था? यदि मैं उन्हें स्वीकार करता तो अपने मन को यह कैसे समझता कि कौम की सेवा मैं पैसे लेकर नहीं करता? इन भेटों में से मुवक्किलो की दी हुई थोड़ी चीजो को छोड़ दे, तो बाकी सब मेरी सार्वजनिक सेवा के निमित्त से ही मिली थी। फिर, मेरे मन में तो मुवक्किलो और दूसरे साथियो के बीच कोई भेद नहीं था। खास-खास सभी मुवक्किल सार्वजनिक कामों में भी मदद देनेवाले थे। 
 
 साथ ही, इन भेटों में से पचास गिन्नियो का एक हार कस्तूरबाई के लिए था। पर वह वस्तु भी मेरी सेवा के कारण ही मिली थी। इसलिए वह दूसरी भेटों से अलग नहीं की जा सकती थी। 
 
 जिस शाम को इनमें से मुख्य भेटे मिली थी, वह रात मैंने पागल की तरह जागकर बितायी। मैं अपने कमरे में चक्कर काटता रहा, पर उलझन किसी तरह सुलझती न थी। सैकड़ो की कीमत के उपहारो को छोडना कठिन मालूम होता था, रखना उससे भी अधिक कठिन लगता था। 
 
 मन प्रश्न करता, मैं शायद भेटों को पचा पाऊँ, पर मेरे बच्चो का क्या होगा? स्त्री का क्या होगा? उन्हे शिक्षा तो सेवा की मिलती थी। उन्हें हमेशा समझाया जाता था कि सेवा के दाम नहीं लिये जा सकते। मैं घर में कीमती गहने वगैरा रखता नहीं था। सादगी बढ़ती जा रही थी। ऐसी स्थिति में सोने की जंजीर और हीरे की अंगूठियाँ कौन पहनता? मैं उस समय भी गहनो-गाँठो का मोह छोड़ने का उपदेश औरो को दिया करता था। अब इन गहनो और जवाहरात का मैं क्या करता? 
 			
| 
 | |||||

 i
 
i                 





 
 
		 

