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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मेरे प्रस्ताव का समय आने पर सर दीनशा ने मेरा नाम पुकारा। मैं खड़ा हुआ। मेरा सिर चकराने लगा। जैसे-तैसे मैंने प्रस्ताव पढ़ा। किसी कवि ने अपनी कविता छपाकर सब प्रतिनिधियों में बाँटी थी। उसमें परदेश जाने की और समुद्र-यात्रा की स्तुति थी। वह मैंने पढ़ सुनायी और दक्षिण अफ्रीका के दुःखो की थोड़ी चर्चा की। इतने में सर दीनशा की घंटी बजी। मुझे विश्वास था कि मैंने अभी पाँच मिनट पूरे नहीं किये हैं। मुझे पता न था कि यह घंटी मुझे चेताने के लिए दो मिनट पहले ही बजा दी गयी थी। मैंने बहुतों को आध-आध, पौने-पौने घंटे बोलते देखा था और घंटी नहीं बजी थी। मुझे दुःख तो हुआ। घंटी बजते ही मैं बैठ गया। पर उक्त काव्य में सर फीरोजशाह को उत्तर मिल गया, ऐसा मेरी अल्प बुद्धि ने उस समय मान लिया।

प्रस्ताव पास होने के बारे में तो पूछना ही क्या था? उन दिनों दर्शक और प्रतिनिधि का भेद क्वचित् हीं किया जाता था। प्रस्तावो का विरोध करने का कोई प्रश्न ही नहीं था। सारे प्रस्ताव सर्व-सम्मति से पास होते थे। मेरा प्रस्ताव भी इसी तरह पास हुआ। इसलिए मुझे प्रस्ताव का महत्त्व नहीं जान पड़ा। फिर भी कांग्रेस में मेरा प्रस्ताव पास हुआ, यह बात ही मेरे आनन्द के लिए पर्याप्त थी। जिस पर कांग्रेस की मुहर लग गयी उस पर सारे भारत की मुहर हैं, यह ज्ञान किस के लिए पर्याप्त न होगा?

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