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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

बलवान से भिड़ंत


अब एशियाई अधिकारियों की ओर लौटे।

एशियाई अधिकारियों का बड़े से बड़ा थाना जोहानिस्बर्ग में था। मैं यह देख रहा था कि उस थाने में हिन्दुस्तानी, चीनी आदि लोगों का रक्षण नहीं, बल्कि भक्षण होता था। मेरे पास रोज शिकायतें आती थी, 'हकदार दाखिल नहीं हो सकते और बिना हकवाले सौ-सौ पौंड़ देकर चले आ रहे है। इसका इलाज आप नहीं करेंगे तो और कौन करेंगा?' मेरी भी यही भावना थी। यदि यह सड़ांध दूर न हो, तो मेरा ट्रान्सवाल में बसना व्यर्थ माना जायगा।

मैं प्रमाण जुटाने लगा। जब मेरे पास प्रमाणो का अच्छा सा संग्रह हो गया, तो मैं पुलिस-कमिश्नर के पास पहुँचा। मुझे लगा कि उसमें दया और न्याय की वृत्ति है। मेरी बात को बिल्कुल अनसुनी करने के बदले उसने मुझे धीरज से सुना और प्रमाण उपस्थित करने का कहा। गवाहो के बयान उसने स्वयं ही लिये। उसे विश्वास हो गया। पर जिस तरह मैं जानता था उसी तरह वह भी जानता था कि दक्षिण अफ्रीका में गोरो पंचों द्वारा गोरे अपराधियों को दण्ड दिलाना कठिन हैं। उसने कहा, 'फिर भी हम प्रयत्न तो करे ही। ऐसे अपराधी को जूरी द्वारा छोड़ दिये जायेंगे, इस डर से उन्हें न पकड़वाना भी उचित नहीं हैं। इसलिए मैं तो उन्हें पकड़वाऊँगा। आपको मैं इतना विश्वास दिलाता हूँ कि अपनी मेंहनत में मैं कोई कसर नहीं रखूँगा।'

मुझे तो विश्वास था ही। दूसरे अधिकारियों पर भी सन्देह तो था, पर उनके विरुद्ध मेरे पास कमजोर प्रमाण था। दो के बारे में कोई सन्देह नहीं था। अतएव दो के नाम वारंट निकले।

मेरा आना-जाना छिपा रह ही नहीं सकता था। कई लोग देखते थे कि मैं प्रायः प्रतिदिन पुलिस कमिश्नर के यहाँ जाता हूँ। इन दो अधिकारियों के छोटे-बड़े जासूस तो थे ही। वे मेरे दफ्तर पर निगरानी रखते थे और मेरे आने-जाने की खबरें उन अधिकारियों को पहुँचाते थे। यहाँ मुझे यह कहना चाहिये कि उक्त अधिकारियों का अत्याचार इतना ज्यादा था कि उन्हें ज्यादा जासूस नहीं मिलते थे। यदि हिन्दुस्तानियो और चीनियों की मुझे मदद न होती, तो ये अधिकारी पकड़े ही न जाते।

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