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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मेरे इस कार्य का यह प्रभाव पड़ा कि मैं जिन गोरो के सम्पर्क में आया, वे मेरी तरफ से निर्भय रहने लगे, और यद्यपि उनके विभागो के विरुद्ध मुझे लड़ना पड़ता था, तीखे शब्द कहने पड़ते थे, फिर भी वे मेरे साथ मीठा संबंध रखते थे। इस प्रकार का बरताव मेरा एक स्वभाव ही था, इसे मैं उस समय ठीक से जानता न था। यह तो मैं बाद में समझने लगा कि ऐसे बरताव में सत्याग्रह की जड़ मौजूद हैं औऱ यह अंहिसा का एक विशेष अंग है।

मनुष्य और उनका काम ये दो भिन्न वस्तुएं हैं। अच्छे काम के प्रति आदर और बुरे के प्रति तिरस्कार होना ही चाहिये। भले-बुरे काम करने वालो के प्रति सदा आदर अथवा दया रहनी चाहिये। यह चीज समझने में सरले हैं, पर इसके अनुसार आचरण कम से कम होता है। इसी कारण इस संसार में विष फैलता रहता है।

सत्य के शोध के मूल में ऐसी अहिंसा हैं। मैं प्रतिक्षण यह अनुभव करता हूँ कि जब तक यह अहिंसा हाथ में नहीं आती, तब तक सत्य मिल ही नहीं सकता। व्यवस्था या पद्धति के विरुद्ध झगड़ना शोभा देता है, पर व्यवस्थापक के विरुद्ध झगड़ा करना तो अपने विरुद्ध झगड़ने के समान है। क्योंकि हम सब एक ही कूंची से रचे गये है, एक ही ब्रह्मा की संतान है। व्यवस्थापर में अनन्त शक्तियाँ निहित हैं। व्यवस्थापक का अनादर या तिरस्कार करने से उन शक्तियों का अनादार होता है और वैसा होने पर व्यवस्थापक को और संसार को हानि पहुँचती हैं।

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