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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


लोग बहुत घबराये। लेकिन चूंकि मैं उनके साथ था, इसलिए उन्हें तसल्ली थी। उनमें से बहुतेरे गरीब अपने पैसे घरों में गाड़कर रखते था। अब पैसे वहाँ से हटाना जरूरी हो गया। उनका कोई बैंक न था। बैंक का तो वे नाम भी न जानते थे। मैं उनका बैक बना। मेरे यहाँ पैसों को ढेर लग गया। ऐसे समय मैं कोई मेंहनताना तो ले ही नहीं सकता था। जैसे तैसे मैंने इस काम को पूरा किया। हमारे बैक के मैनेजर से मेरी अच्छी जान पहचान थी। मैंने उनसे कहा कि मुझे उनके बैक में बहुत बडी रकम जमा करनी होगी। बैंक तांबे और चादी के सिक्के लेने को तैयार नहीं होते। इसके सिवा, महामारी के क्षेत्र से आने वाले पैसों को छूने में मुहर्रिर लोग आनाकानी करे, इसकी भी संभावना था। मैनेजर ने मेरे लिए सब प्रकार की सुविधा कर दी। तय हुआ कि जंतु नाशक पानी से धो कर पैसे बैक में भेज दिये जाये। मुझे याद है कि इस तरह लगभग साठ हजार पौंड बैक में जमा किये गये थे। जिनके पास अधिक रकमे थी उन मुवक्किलो को एक निश्चित अवधि के लिए अपनी रकम ब्याज पर रखने की सलाह मैंने दी। इस प्रकार अलग अलग मुवक्किलो के नाम कुछ रकमें जमा की गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि उनसे से कुछ लोग बैंक में पैसे रखने के आदी हो गये। लोकेशन में रहने वालो को एक स्पेशल ट्रेन में जाहानिस्बर्ग के पास क्लिपस्प्रूट फार्म पर ले जाया गया। वहाँ उनके खाने पीने की व्यवस्था म्युनिसिपैलिटी ने अपने खर्च से की। तंबुओ में बसे इस गाँव का दृश्य सिपाहियों की छावनी जैसा था। लोगों को इस तरह रहने की आदत नहीं थी। इससे उन्हें मानसिक दुःख हुआ, नया नया सा लगा। किन्तु कोई खास तकलीफ नहीं उठानी पड़ी। मैं हर रोज एक बार साइकल पर वहाँ जाता थी। इस तरह तीन हफ्ते खुली हवा में रहने से लोगों के स्वास्थय में अवश्य ही सुधार हुआ और मानसिक दुःख को तो वे पहले चौबीस घंटो के अन्दर ही भूल गये। अतएव बाद में वे आनन्द से रहने लगे। मैं जब भी वहाँ जाता, उन्हें भजन कीर्तन और खेल कूद में ही लगा पाता।

जैसा कि मुझे याद है जिस दिन लोकेशन खाली किया गया उसके दूसरे दिन उसकी होली की गयी। म्युनिसिपैलिटी ने उसकी एक भी चीज बचाने का लोभ नहीं किया। इन्हीं दिनों और इसी निमित्त से म्युनिसिपैलिटी ने अपने मार्केट की सारी इमारती लकड़ी भी जला डाली और लगभग दस हजार पौंड का नुकसान सहन किया। मार्केट में मरे हुए चूहे मिले थे, इस कारण यह कठोर कार्यवाही की गयी थी, पर परिणाम यह हुआ कि महामारी आगे बिल्कुल न बढ़ सकी। शहर निर्भय बना।

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