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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


आश्रम में पारसी और ईसाई भी थे। इन सबको अपने-अपने धर्मो के अनुसार चलने के लिए प्रोत्साहित करने का आश्रम में नियम था। अतएव मुसलमान नौजवानो को मैंने रोजे रखने के लिए उत्साहित किया। मुझे तो प्रदोष-व्रत करना ही था। किन्तु मैंने हिन्दुओं, पारसियों और ईसाईयो को भी मुसलमान नौजवान का साथ देने की सलाह दी। मैंने उन्हें समझाया कि संयम के सब के साथ सबयोग करना स्तुत्य है। बहुतेरे आश्रमवासियों ने मेरी बात मान ली। हिन्दू और पारसी मुसलमान साथियो का पूरा-पूरा अनुकरण नहीं करते थे, करना आवश्यक भी न था। मुसलमान सूरज डूबने की राह देखते थे, जब कि दूसरे उससे पहले खा लिया करते थे, जिससे वे मुसलमानों को परोस सके और उनके लिए विशेष वस्तुएँ तैयार कर सकें। इसके सिवा, मुसलमान जो सरही (वह हलका भोजन जो रमजान के दिनो में रोजा रखने वाले मुसलमान कुछ रात रहते कर लेते है ) खाते थे, उसमें दूसरो के सम्मिलित होने की आवश्यकता न थी। और मुसलमान दिन में पानी भी न पीते थे, जबकि दूसरे लोग छूट से पानी पीते थे।

इस प्रयोग का एक परिणाम यह हुआ कि उपवास और एकाशन का महत्तव सब समझने लगे। एक-दूसरे के प्रति उदारता और प्रेमभाव में वृद्धि हुई। आश्रम में अन्नाहार का नियम था। यह नियम मेरी भावना के कारण स्वीकार किया गया था, यह बात मुझे यहाँ आभारपूर्वक स्वीकार करनी चाहिये। रोजे के दिनों में मुसलमानों को माँस का त्याग कठिन प्रतीत हुआ होगा, पर नवयुवको में से किसी ने मुझे उसका पता नहीं चलने दिया। वे आनन्द और रस-पूर्वक अन्नाहार करते थे। हिन्दू बालक आश्रम में अशोभनीय न लगनेवाले स्वादिष्ठ भोजन भी उनके लिए तैयार करते थे।

अपने उपवास का वर्णन करते हुए यह विषयान्तर मैंने जान-बूझकर किया है, क्योंकि इस मधुर प्रसंग का वर्णन मैं दूसरी जगह नहीं कर सकता था। और, इस विषयान्तर के साथ मैंने अपनी एक आदत की भी चर्चा कर ली है। अपने विचार में मैं जो अच्छा काम करता हूँ, उसमें अपने साथ रहनेवालो को सम्मिलित करने का प्रयत्न मैं हमेशा करता हूँ। उपवास औऱ एकाशन के प्रयोग नये थे, पर प्रदोष और रमजान के बहाने मैंने सबको इसमे फाँद लिया।

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