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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


आत्मिक शिक्षा किस प्रकार दी जाय? मैं बालकों से भजन गवाता, उन्हें नीति की पुस्तकें पढकर सुनाता, किन्तु इससे मुझे संतोष न होता था। जैसे-जैसे मैं उनके संपर्क में आता गया, मैंने यह अनुभव किया कि यह ज्ञान पुस्तको द्वारा तो दिया ही नहीं जा सकता। शरीर की शिक्षा जिस प्रकार शरीरिक कसरत द्वारा दी जाती है और बुद्धि को बौद्धिक कसरत द्वारा, उसी प्रकार आत्मा की शिक्षा आत्मिक कसरत द्वारा ही दी जा सकती है। आत्मा की कसरत शिक्षक के आचरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अतएव युवक हाजिर हो चाहे न हो, शिक्षक तो सावधान रहना चाहिये। लंका में बैठा हुआ शिक्षक भी अपने आचरण द्वारा अपने शिष्यो की आत्मा को हिला सकता है। मैं स्वयं झूठ बोलूँ और अपने शिष्यो को सच्चा बनने का प्रयत्न करूँ, तो वह व्यर्थ ही होगा। डरपोक शिक्षक शिष्यो को वीरता नहीं सिखा सकता। व्यभिचारी शिक्षक शिष्यो को संयम किस प्रकार सिखायेगा? मैंने देखा कि मुझे अपने पास रहने वाले युवको और युवतियो के सम्मुख पदार्थपाठ-सा बन कर रहना चाहिये। इस कारण मेरे शिष्य मेरे शिक्षक बने। मैं यह समझा कि मुझे अपने लिए नहीं, बल्कि उनके लिए अच्छा बनना और रहना चाहिये। अतएव कहा जा सकता है कि टॉल्सटॉय आश्रम का मेरा अधिकतर संयम इन युवको और युवतियों की बदौलत था।

आश्रम में एक युवक बहुत ऊधम मचाता था, झूठ बोलता था, किसी से दबता नहीं था और दूसरो के साथ लड़ता-झगड़ता था। एक दिन उसने बहुत ही ऊधम मचाया। मैं घबरा उठा। मैं विद्यार्थियो को कभी सजा न देता था। इस बार मुझे बहुत क्रोध हो आया। मैं उसके पास पहुँचा। समझाने पर वह किसी प्रकार समझता ही न था। उसने मुझे धोखा देने का भी प्रयत्न किया। मैंने अपने पास पड़ा हुआ रूल उठा कर उसकी बाँह पर दे मारा। मारते समय मैं काँप रहा था। इसे उसने देख लिया होगा। मेरी ओर से ऐसा अनुभव किसी विद्यार्थी को इससे पहले नहीं हुआ था। विद्यार्थी रो पड़ा। उसने मुझसे माफी माँगी। उसे डंड़ा लगा और चोट पहुँची, इससे वह नहीं रोया। अगर वह मेरा मुकाबला करना चाहता, तो मुझ से निबट लेने की शक्ति उसमें थी। उसकी उमर कोई सतरह साल की रही होगी। उसकी शरीर सुगठित था। पर मेरे रूल में उसे मेरे दुःख का दर्शन हो गया। इस घटना के बाद उसने फिर कभी मेरी सामना नहीं किया। लेकिन उसे रूल मारने का पछतावा मेरे दिल में आज तर बना हुआ है। मुझे भय है कि मारकर मैंने अपनी आत्मा का नहीं, बल्कि अपनी पशुता का ही दर्शन कराया था।

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