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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैंने बन्दूकधारी में और उसकी मदद करने वाले में अहिंसा की दृष्टि से कोई भेद नहीं माना। जो मनुष्य लुटेरो की टोली में उनकी आवश्यक सेवा करने, उनका बोझ ढोने, लूट के समय पहरा देने तथा घायल होने पर उनकी सेवा करने में सम्मिलित होता है, लूट के संबंध में लुटेरो जितना ही जिम्मेदार है। इस तरह सोचने पर फौज में केवल घायलो की ही सार-संभाल करने के काम में लगा हुआ व्यक्ति भी युद्ध के दोषो से मुक्त नहीं हो सकता।

पोलाक का तार मिलने से पहले ही मैंने यह सब सोच लिया था। उनका तार मिलने पर मैंने कुछ मित्रों से उसकी चर्चा की। युद्ध में सम्मिलित होने में मैंने धर्म माना, और आज भी इस प्रश्न पर सोचता हूँ तो मुझे उपर्युक्त विचारधारा में कोई दोष नजर नहीं आता। ब्रिटिश साम्राज्य के विषय में उस समय मेरे जो विचार थे, उनके अनुसार मैंने युद्धकार्य में हिस्सा लिया था। अतएव मुझे उसका पश्चाताप भी नहीं है।

मैं जानता हूँ कि अपने उपर्युक्त विचारो का औचित्य मैं उस समय भी सब मित्रों के सामने सिद्ध नहीं कर सका था। प्रश्न सूक्ष्म है। उसमें मतभेद के लिए अवकाश है। इसीलिए अहिंसा -धर्म के मानने वाले और सूक्ष्म रीति से उसका पालन करने वालो के सम्मुख यथासंभव स्पष्टता से मैंने अपनी राय प्रकट की है। सत्य का आग्रही रूढि से चिपटकर ही कोई काम न करे। वह अपने विचारो पर हठ पूर्वक डटा न रहे, हमेशा यह मान कर चले कि उनमें दोष हो सकता है और जब दोष का ज्ञान हो जाय तब भारी से भारी जोखिमो को उठाकर भी उसे स्वीकार करे और प्रायश्चित भी करे।

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