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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

गिरमिट की प्रथा


अब नये बसे हुए और भीतरी तथा बाहरी तूफानो में से उबरे हुए आश्रम को छोड़कर यहाँ गिरमिट-प्रथा पर थोड़ा विचार कर लेने का समय आ गया है। 'गिरमिटया' यानी वे मजदूर जो पाँच बरस या इससे कम की मडदूरी के इकरारनामे पर सही करके हिन्दुस्तान के बाहर मजदूरी करने गये हो। नेटाल के ऐसे गिरमिटयो पर लगा तीन पौंड का वार्षिक कर सन् 1914 में उठा लिया गया था, पर गिरमिट का प्रथा अभी तक बन्द नहीं हुई थी। सन् 1916 में भारत-भूषण पंडित मालवीयजी ने यह प्रश्न धारासभा में उठाया था और लार्ड हार्डिंग ने उनका प्रस्ताव स्वीकार करके घोषणा किया था कि 'समय आने पर' इस प्रथा को नष्ट करने का वचन मुझे सम्राट की ओर से मिला है। लेकिन मुझे तो स्पष्ट लगा कि इस प्रथा का तत्काल ही बन्द करने का निर्णय हो जाना चाहिये। हिन्दुस्तान ने अपनी लापरवाही से बरसो तक इस प्रथा को चलने दिया था। मैंने माना कि अब इस प्रथा को बन्द कराने जितनी जागृति लोगों में आ गयी है। मैं कुछ नेताओं से मिला, कुछ समाचारपत्रो में इस विषय में लिखा और मैंने देखा कि लोकमत इस प्रथा को मिटा देने के पक्ष में है। क्या इसमे सत्याग्रह का उपयोग हो सकता है? मुझे इस विषय में कोई शंका नहीं थी। पर उसका उपयोग कैसे किया जाय, सो मैं नहीं जानता था।

इस बीच वाइसरॉय ने 'समय आने पर' शब्दों का अर्थ समझाने का अवसर खोज लिया। उन्होंने घोषित किया कि 'दूसरी व्यवस्था करने में जितना समय लगेगा उतने समय में' यह प्रथा उठा दी जायगी। अतएव जब सन् 1917 के फरवरी महीने में भारत-भूषण पंडित मालवीयजी ने गिरमिट प्रथा सदा के लिए समाप्त कर देने का कानून बड़ी धारासभा में पेश करने की इजाजत माँगी तो वाइसरॉय ने वैसा करने से इनकार कर दिया। अतएव इस प्रश्न के संबन्ध में मैंने हिन्दुस्तान में घूमना शुरू किया।

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