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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


रात नड़ियाद तो वापिस जाना ही था। साबरमती स्टेशन तक पैदल गया। पर सवा मील का वह रास्ता तय करना मुश्किल हो गया। अहमदाबाद स्टेशन पर वल्लभभाई पटेल मिलने वाले थे। वे मिले और मेरी पीड़ा ताड़ ली। फिर भी मैंने उन्हें अथवा दूसरे साथियो को यह मालूम न होने दिया कि पीड़ा असह्य थी।

नड़ियाद पहुँचे। वहाँ से अनाथाश्रम जाना था, जो आधे मील से कुछ कम ही दूर था। लेकिन उस दिन यह दूरी मील के बराबर मालूम हुई। बड़ी मुश्किल से घर पहुँचा। लेकिन पेट का दर्द बढ़ता ही जाता था। 15-15 मिनट से पाखाने की हाजत मालूम होती थी। आखिर मैं हारा। मैंने अपनी असह्य वेदना प्रकट की और बिछौना पकड़ा। आश्रम के आम पाखाने में जाता था, उसके बदले दो मंजिले पर कमोड मँगवाया। शरम तो बहुत आयी, पर मैं लाचार हो गया था। फूलचन्द बापू जी बिजली की गति से कमोड ले आये। चिन्तातुर होकर साथियो ने मुझे चारो ओर से घेर दिया। उन्होंने मुझे अपने प्रेम से नहला दिया। पर वे बेचारे मेरे दुःख में किस प्रकार हाथ बँटा सकते थे? मेरे हठ का पार न था। मैंने डॉक्टर को बुलाने से इनकार कर दिया। दवा तो लेनी ही न थी, सोचा किये हुए पाप की सजा भोगूँगा। साथियो ने यह सब मुँह लटका कर सहन किया। चौबीस बार पाखाने की हाजत हुई होगी। खाना मैं बन्द कर ही चुका था, और शुरू के दिनो में तो मैंने फल का रस भी नहीं लिया था। लेने की बिल्कुल रुचि न थी।

आज तक जिस शरीर को मैं पत्थर के समान मानता था, वह अब गीली मिट्टी जैसा बन गया। शक्ति क्षीण हो गयी। साथियो ने दवा लेने के लिए समझाया। मैंने इनकार किया। उन्होंने पिचकारी लगवाने की सलाह दी। उस समय की पिचकारी विषयक मेरा अज्ञान हास्यास्पद था। मैं यह मानता था कि पिचकारी में किसी-न-किसी प्रकार की लसी होगी। बाद में मुझे मालूम हुआ कि वह तो निर्दोष वनस्पति से बनी औषधि की पिचकारी थी। पर जब समझ आयी तब अवसर बीत चुका था। हाजते तो जारी ही थी। अतिशय परिश्रम के कारण बुखार आ गया और बेहोशी भी आ गयी। मित्र अधिक घबराये। दूसरे डॉक्टर भी आये। पर जो रोगी उनकी बात माने नहीं, उसके लिए वे क्या कर सकते थे।

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