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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


रात पड़ी। हम सभा से घर लौटे। भोजन के बाद ताश खेलने बैठे। विलायत में अच्छे भले घरों में भी इस तरह गृहिणी मेंहमानो के साथ ताश खेलने बैठती है। ताश खेलते हुए निर्दोष विनोद तो सब कौई करते हैं। लेकिन यहाँ तो बीभत्स विनोद शुरू हुआ। मैं नहीं जानता था कि मेरे साथी इस में निपुण हैं। मुझे इस विनोद में रस आने लगा। मैं भी इसमे शरीक हो गया। वाणी में से क्रिया में उतरने की तैयारी थी। ताश एक तरफ घरे ही जा रहे थे। लेकिन मेरे भले साथी के मन में राम बसे। उन्होंने कहा, 'अरे, तुम में यह कलियुग कैसा ! तुम्हारा यह काम नहीं हैं। तुम यहाँ से भागो।'

मैं शरमाया। सावधान हुआ। हृदय में उन मित्र का उपकार माना। माता के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा याद आयी। मैं भागा। काँपता-काँपता अपनी कोठरी में पहुँचा। छाती धड़क रही थी। कातिल के हाथ से बचकर निकले हुए शिकार की जैसी दशा होती हैं वैसी ही मेरी हुई।

मुझे याद हैं कि पर-स्त्री को देखकर विकारवश होने और उसके साथ रंगरेलियाँ करने की इच्छा पैदा होने का मेरे जीवन में यह पहला प्रसंग था। उस रात मैं सो नहीं सका। अनेक प्रकार के विचारों ने मुझ पर हमला किया। घर छोड़ दूँ? भाग जाऊँ? मैं कहाँ हूँ? अगर मैं सावधान न रहूँ तो मेरी क्या गत हो? मैंने खूब चौकन्ना रहकर बरतने का निश्चय किया। यह सोच लिया कि घर तो नहीं छोड़ना हैं, पर जैसे भी बने पोर्टस्मथ जल्दी छोड़ देना हैं। सम्मेलन दो दिन से अधिक चलने वाला न था। इसलिए जैसा कि मुझे याद हैं, मैंने दूसरे दिन ही पोर्टस्मथ छोड दिया। मेरे साथी पोर्टस्मथ में कुछ दिन के लिए रुके।

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