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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैंने उत्तर दिया, 'अगर मैं आपकी कुछ मदद कर सकूँ, तो मुझे खुशी होगी। मैं अपनी शक्ति भर प्रयत्न अवश्य करुँगा। आप कहे तो आपके स्थान पर आ जाया करुँ।'

'नहीं, नहीं, मैं ही आपके घर आऊँगा। मेरे पास पाठमाला हैं। उसे भी लेता आउँगा।'

हमने समय निश्चित किया। हमारे बीच मजबूत स्नेह-गाँठ बंध गयी।

नारायण हेमचन्द्र को व्याकरण बिल्कुल नहीं आता था। वे 'घोड़ा' को क्रियापद बना देते और 'दौडना' के संज्ञा। ऐसे मनोरंजक उदाहरण तो मुझे कई याद हैं। पर नारायण हेमचन्द्र तो मुझे घोटकर पी जानेवालो में थे। व्याकरण के मेरे साधारण ज्ञान से मुग्ध होने वाले नहीं थे। व्याकरण न जानने की उन्हें कोई शरम ही नहीं थी।

'तुम्हारी तरह मैं किसी स्कूल में नहीं पढ़ा हूँ। उपने विचार प्रकट करने के लिए मुझे व्याकरण की आवश्यकता मालूम नहीं होती। बोलो, तुम बंगला जानते हैं? मैं बंगाल में घूमा हूँ। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर की पुस्तकों के अनुवाद गुजराती जनता को मैंने दिये हैं। मैं गुजराती जनता को कई भाषाओ के अनुवाद देना चाहता हूँ। अनुवाद करते समय मैं शब्दार्थ से नहीं चिपकता, भावार्थ दे कर संतोष मान लेता हूँ। मेरे बाद दूसरे भले ही अधिक देते रहें। मैं बिना व्याकरण के भी मराठी जानता हूँ, हिन्दी जानता हूँ, और अब अंग्रेजी भी जानने लगा हूँ। मुझे तो शब्दभंडार चाहिये। तुम यह न समझो कि अकेली अंग्रेजी से मुझे संतोष हो जायेगा। मुझे फ्रांस जाना हैं और फ्रेंच भी सीख लेनी हैं। मैं जानता हूँ कि फ्रेंच साहित्य विशाल हैं। संभव हुआ तो मैं जर्मनी भी जाऊँगा और जर्मन सीख लूँगा।'

नारायण हेमचन्द्र की वाग्धारा इस प्रकार चलती ही रही। भाषाएं सीखने और यात्रा करने की उनके लोभ की कोई सीमा न थी।

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