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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मुक्तानन्द का यह वचन उनकी जीभ पर तो था ही, पर वह उलके हृदय में भी अंकित था।

वे स्वयं हजारों का व्यापार करते, हीरे मोती की परख करते, व्यापार की समस्यायें सुलझाते, पर यह सब उनका विषय न था। उनका विषय उनका पुरुषार्थ तो था आत्मपरिचय हरिदर्शन। उनकी गद्दी पर दुसरी कोई चीज हो चाहे न हो, पर कोई न कोई धर्मपुस्तक और डायरी तो अवश्य रहती थी। व्यापार की बात समाप्त होते ही धर्मपुस्तक खुलती थी। उनके लेखों का जो संग्रह प्रकाशित हुआ हैं, उसका अधिकांश इस डायरी से लिया गया हैं। जो मनुष्य लाखों के लेन-देन की बात करके तुरन्त ही आत्म-ज्ञान की गूढ़ बाते लिखने बैठ जाये, उसकी जाति व्यापारी की नहीं वल्कि शुद्ध ज्ञानी की हैं। उनका ऐसा अनुभव मुझे एक बार नहीं, कई बार हुआ था। मैंने कभी उन्हें मूर्च्छा की स्थिति में नहीं पाया। मेरे साथ उनका कोई स्वार्थ नहीं था। मैं उनके बहुत निकट सम्पर्क में रही हूँ। उस सम. मैं एक भिखारी बारिस्टर था। पर जब भी मैं उनकी दुकान पर पहुँचता, वे मेरे साथ धर्म-चर्चा के सिवा दूसरी कोई बात ही न करते थे। यद्यपि उस समय मैं अपनी दिशा स्पष्ट नहीं कर पाया था; यह भी नहीं कह सकता कि साधारणतः मुझे धर्म चर्चा में रस था; फिर भी रायचन्द्र भाई की धर्म चर्चा रुचिपूर्वक सुनता था। उसके बाद मैं अनेक धर्माचार्यो के सम्पर्क में आया हूँ। मैंने हरएक धर्म के आचार्यो से मिलने का प्रयत्न किया है। पर मुझ पर जो छाप भाई रायचन्दभाई ने डाली, वैसी दूसरा कोई न डाल सका। उनके बहुतेरे वचन मेरे हृदय में सीधे ऊतर जाते थे। मैं उलकी बुद्धि का सम्मान करता था। उसकी प्रामाणिकता के लिए मेरे मन में उतना ही आदर था। इसलिए मैं जानता था कि वे मुझे जान-बूझकर गलत रास्ते नहीं ले जायेंगे और उनके मन में होगा वही कहेंगे। इस कारण अपने आध्यात्मिक संकट के समय मैं उलका आश्रय लिया करता था।

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