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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


खाने-पीने में भी सुधार करने की आवश्यकता स्पष्ट थी। घर में चाय-काफी को जगह मिल चुकी थी। बड़े भाई ने सोचा कि मेरे विलायत से लौटने से पहले घर में विलायत की कुछ हवा तो दाखिल हो ही जानी चाहिये। इसलिए चीनी मिट्टी के बरतन, चाय आदि जो चीजें पहले घर में केवल दवा के रुप में और 'सभ्य' मेंहमानों के लिए काम आती थी, वे सब के लिए बरती जाने लगीं। ऐसे वातावरण में मैं अपने 'सुधार' लेकर पहुँचा। ओटमील पारिज (जई की लपसी) को घर में जगह मिली, चाय-काफी के बदले कोको शुरू हुआ। पर यह परिवर्तन तो नाममात्र को ही था, चाय-काफी के साथ के साथ कोको और बढ़ गया। बूट-मोचे घर में घुस ही चुके थे। मैंने कोट-पतलून से घर को पुनीत किया !

इस तरह खर्च बढ़ा नवीनताये बढ़ी। घर पर सफेद हाथी बँध गया। पर यह खर्च लाया कहाँ से जाय? राजकोट में तुरन्त धन्धा शुरू करता हूँ, तो हँसी होती हैं। मेरे पास ज्ञान तो इतना भी न था कि राजकोट में पास हुए वकीस से मुकाबले में खड़ा हो सकूँ, तिस पर फीस उससे दस गुनी फीस लेने का दावा ! कौन मूर्ख मुवक्किल मुझे काम देता? अथवा कोई ऐसा मूर्ख मिल भी जाये तो क्या मैं अपने अज्ञान में घृष्टता और विश्वासघात की वृद्धि करके अपने उपर संसार का ऋण और बढ़ा लूँ?

मित्रों की सलाह यह रहीं कि मुझे कुछ समय के लिए बम्बई जाकर हाईकोर्ट की वकालत का अनुभव प्राप्त करना और हिन्दुस्तान के कानून का अध्ययन करना चाहियें और कोई मुकदमा मिल सके तो उसके लिए कोशिश करनी चाहिये। मैं बम्बई के लिए रवाना हुआ। वहाँ घर बसाया। रसोईया रखा। ब्राह्मण था। मैंने उसे नौकर की तरह कभी रखा ही नहीं। यह ब्राह्मण नहाता था, पर धोता नहीं था। उसकी धोती मैंली, जनेऊ मैंला। शास्त्र के अभ्यास से उसे कोई सरोकार नहीं। लेकिन अधिक अच्छा रसोईया कहाँ से लाता?

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