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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


'पर मैंने लन्दन की मैंट्रिक्युलेशन परीक्षा पास की हैं। लेटिन मेरी दूसरी भाषा थी।' मैंने कहा।

'सो तो ठीक हैं, पर हमें तो ग्रेज्युएट की ही आवश्यकता हैं।'

मैं लाचार हो गया। मेरी हिम्मत छूट गयी। बड़े भाई भी चिन्तित हुए। हम दोनों ने सोचा कि बम्बई में अधिक समय बिताने निरर्थक हैं। मुझे राजकोट में ही जमना चाहिये। भाई स्वयं छोटा वकील थे। मुझे अर्जी-दावे लिखने का कुछ-न-कुछ काम तो दे ही सकते थे। फिर राजकोट में तो घर का खर्च चलता ही था। इसलिए बम्बई का खर्च कम कर डालने से बड़ी बचत हो जाती। मुझे यह सुझाव जँचा। यों कुल लगभग छह महीने रहकर बम्बई का घर मैंने समेट सिया।

जब तक बम्बई में रहा, मैं रोज हाईकोर्ट जाता था। पर मैं यह नहीं कह सकता कि वहाँ मैंने कुछ सीखा। सीखने लायक ही मुझ में न थी। कभी-कभी तो मुकदमा समझ में न आता और इसकी कार्यवाई में रुचि न रहती, तो बैठा-बैठा झपकियाँ भी लेता रहता। यों झपकियाँ लेने वाले दूसरे साथी भी मिल जाते थे। इससे मेरी शरम का बोझ हलका हो जाता था। आखिर मैं यह समझने लगा कि हाईकोर्ट में बैठकर ऊँघना फैशन के खिलाफ नहीँ हैं। फिर तो शरम की कोई वजह ही न रह गयी।

यदि इस युग में भी मेरे समान कोई बेकार बारिस्टर बम्बई में हो, तो उनके लिए अपना एक छोटा सा अनुभव यहाँ मैं लिख देता हूँ।

घर गिरगाँव में होते हुए भी मैं शायद ही कभी गाड़ीभाड़े का खर्च करता था। ट्राम में भी क्वचित ही बैठता था। अकसर गिरगाँव से हाईकोर्ट तक प्रतिदिन पैदल ही जाता था। इसमे पूरे 45 मिनट लगते थे और वापसी में तो बिना चूके पैदल ही घर आता था दिन में धूप लगती थी, पर मैंने उसे सहन करने की आदत डाल ली थी। इस तरह मैंने काफी पैसे बचाये।

बम्बई में मेरे साथी बीमार पड़ते थे, पर मुझे याद नहीं हैं कि मैं एक दिन भी बीमार पड़ा होऊँ। जब मैं कमाने लगा तब भी इस तरह पैदल ही दफ्तर जाने की आदत मैंने आखिर तक कायम रखी। इसका लाभ मैं आज तक उठा रहा हूँ।

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