लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इसी समय एक दूसरे ईसाई कुटुम्ब के साथ मेरा सम्बन्ध जुडा। उसकी इच्छा से मैं हर रविवार को वेरिलयन गिरजे में जाया करता था। अक्सर हर रविवार की शाम को मुझे उनके घर भोजन भी करना पड़ता था। वेरिलयन गिरजे का मुझ पर अच्छा असर नहीं पड़ा। वहाँ जो प्रवचन होते थे, वे मुझे शुष्क जान पड़े। प्रेक्षकों में भक्तिभाव के दर्शन नहीं हुए। यह ग्यारह बजे का समाज मुझे भक्तो का नहीं, बल्कि दिल बहलाने और कुछ रिवाज पालने के लिए आये हुए संसारी जीवो का समाज जान पड़ा। कभी कभी तो इस सभा में मुझे बरबस नींद के झोंके आ जाते। इससे मैं शरमाता। पर अपने आसपास भी किसी को ऊँधते देखता, तो मेरी शरम कुछ कम हो जाती। अपनी यह स्थिति मुझे अच्छी नहीं लगी। आखिर मैंने इस गिरजे में जाना छोड दिया।

मैं जिस परिवार में हर रविवार को जाता था, कहना होगा कि वहाँ से तो मुझे छुट्टी ही मिल गयी। घर की मालकिन भोली, परन्तु संकुचित मन की मालूम हुई। हर बार उनके साथ कुछ न कुछ धर्मचर्चा तो होती ही रहती थी। उन दिनों मैं घर पर 'लाइट ऑफ एशिया' पढ़ रहा था। एक दिन हम ईसा और बुद्ध के जीवन की तुलना करने लगे। मैंने कहा, 'गौतम की दया देखिये। वह मनुष्य-जाति को लाँधकर दुसरे प्राणियों तक पहुँच गयी थी। उनके कंधे पर खेलते हुए मेंमने का चित्र आँखो के सामने आते ही क्या आपका हृदय प्रेम से उमड़ नहीं पड़ता? प्राणीमात्र के प्रति ऐसा प्रेम मैं ईसा के चरित्र में नहीं देख सका।'

उस बहन का दिल दुखा। मैं समझ गया। मैंने अपनी बात आगे न बढ़ायी। हम भोजनालय में पहुँचे। कोई पाँच वर्ष का उनका हंसमुख बालक भी हमारे साथ था। मुझे बच्चे मिल जाये तो फिर और क्या चाहिये? उसके साथ मैंने दोस्ती तो कर ही ली थी। मैंने उसकी थाली में पड़े माँस के टुकडे का मजाक किया और उपनी रबाकी में सजे हुए सेव की स्तुति की। निर्दोष बालक पिघल गया और सेव की स्तुति में सम्मिलित हो गया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book