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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


स्टीमर में मुसाफिर बहुत थे। दो अंग्रेज अधिरकारी थे। उनसे मेरी मित्रता हो गयी। एक के साथ मैं रोज एक घंटा शतरंज खेलने में बिताता था। स्टीमर के डॉक्टर ने मुझे एक 'तामिल शिक्षक' (तामिल सिखानेवाली) पुस्तक दी। अतएव मैंने उसका अभ्यास शुरू कर दिया।

नेटाल में मैंने अनुभव किया था कि मुसलमानों के साथ अधिक निकट सम्बन्ध जोड़ने के लिए मुझे उर्दू सीखनी चाहिये और मद्रासी भाईयो से वैसा सम्बन्ध स्थापति करने के लिए तामिल सीखनी चाहिये।

उर्दू के लिए उक्त अंग्रेज मित्र की माँग पर मैंने डेक के मुसाफिरों में से एक अच्छा मुंशी ढूँढ निकाला और हमारी पढ़ाई अच्छी तरह चलने लगी। अंग्रेज अधिकारी की स्मरण शक्ति मुझसे बढ़ी-चढी थी। उर्दू अक्षर पहचानने में मुझे मुश्किल होती, पर वह तो एक बार जिस शव्द को देख लेते असे कभी भूलते ही न थे। मैं अधिक मेंहनत करने लगा। फिर भी उनकी बराबरी नहीं कर सका।

तामिल का अभ्यास भी ठीक चलता रहा। उसमें किसी की मदद नहीं मिल सकती थी। पुस्तक ऐसे ढंग से लिखी गयी थी कि मदद की अधिक आवश्यकता न पड़े।

मुझे आशा थी कि इस तरह शुरू किये गये अभ्यासों को मैं देश में पहुँचने के बाद भी जारी रख सकूँगा। पर वैसा न हो पाया। सन् 1893 के बाद का मेरा वाचन और अध्ययन मुख्यतः जेल में ही हुआ। इन दोनो भाषाओ का ज्ञान मैंने बढाया तो सही, पर वह सब जेल में ही। तामिल का दक्षिण अफ्रीका की जेल में और उर्दू का यरवडा जेल में। पर तामिल बोलना मैं कभी सीख न सका, पढना ठीक तरह से सीखा था, पर अभ्यास के अभाव में अब उसे भी भूलता जा रहा हूँ। उस अभाव का दुःख मुझे आज भी व्यथित करता हैं।

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