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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


राजनिष्ठा की तरह शुश्रूषा का गुण भी मुझ में स्वाभाविक था। यह कहा जा सकता हैं कि बीमारो की सेवा करने का मुझे शौक था, फिर वे अपने हो या पराये। राजकोट में मेरा दक्षिण अफ्रीका का काम चल रहा था, इसी बीच मैं बम्बई हो आया। खास-खास शहरो में सभाये करके विशेष रुप से लोकमत तैयार करने का मेरा इरादा था। इसी ख्याल से मैं वहाँ गया था। पहले मैं न्यायमूर्ति रानडे से मिला। उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी और मुझे सर फीरोजशाह मेंहता से मिलने की सलाह दी। बाद में मैं जस्टिस बदरुद्दीन तैयबजी से मिला। उन्होंने मेरी बात सुनकर वही सलाह दी और कहा, 'जस्टिस रानडे और मैं आपका बहुत कम मार्गदर्शन कर सकेगे। हमारी स्थिति तो आप जानते हैं। हम सार्वजनिक काम में हाथ नहीं बँटा सकते। पर हमारी भावना तो आपके साथ है ही। सच्चे मार्गदर्शक तो सर फीरोजशाह हैं।'

सर फीरोजशाह से तो मुझे मिलना ही था। पर इन दो गुरुजनो के मुँह से उनकी सलाह सुनकर मुझे इस बात का विशेष बोध हुआ कि सर फीरोजशाह का जनता पर कितना प्रभुत्व था।

मैं सप फीरोजशाह से मिला। उनके तेज से चकाचौंध हो जाने को तो मैं तैयार था ही। उनके लिए प्रयुक्त होने वाले विशेषणों को मैं सुन चुका था। मुझे 'बम्बई के शेर' और 'बम्बई के बेताज बादशाह' से मिलना था। पर बादशाह ने मुझे डराया नहीं। पिता जिस प्रेम से अपने नौजवान बेटे से मिलता हैं, ऊसी तरह वे मुझसे मिले। उनसे मुझे उनके 'चेम्बर' में मिलना था। उनके पास उनके अनुयायियों का दरबार तो भरा ही रहता था। वाच्छा थे, कामा थे। इनसे उन्होंने मेरी पहचान करायी। वाच्छा का नाम मैं सुन चुका था। वे सर फीरोजशाह के दाहिने हाथ माने जाते थे। वीरचन्द गाँधी में अंकशास्त्री के रुप में मुझे उनका परिचय दिया था। उन्होंने कहा, 'गाँधी, हम फिर मिलेंगे।'

इस सारी बातचीत में मुश्किल से दो मिनट लगे होगे। सर फीरोजशाह ने मेरी बात सुन ली। न्यानमूर्ति रानडे और तैयबजी से मिल चुकने की बात भी मैंने उन्हे बतता दी। उन्होंने कहा, 'गाँधी, तुम्हारे लिए मुझे आम सभा करनी होगी। मुझे तम्हारी मदद करनी चाहिये।' फिर अपने मुंशी की ओर मुडे और उसे सभा का दिन निश्चित करने को कहा। दिन निश्चित करके मुझे बिदा किया। सभा से एक दिन पहले आकर मिलने की आज्ञा की। मैं निर्भय होकर मन ही मन खुश होता हुआ घर लौटा।

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