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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


यहाँ मुझे पेस्तनजी पादशाह की याद आ रही है। उनके साथ विलायत से ही मेरा मीठा सम्बन्ध हो गया था। पेस्तनजी से मेरा परिचय लंदन के एक अन्नाहारी भोजनालय में हुआ था। मैं जानता था कि उनके भाई बरजोरजी 'दीवाने' के नाम से प्रख्यात थे। मैं उनसे मिला नहीं था, पर मित्र-मंडली का कहना था कि वे 'सनकी ' है। घोडे पर दया करके वे ट्राम में न बैठते थे। शतावधानी के समान स्मरण शक्ति होते हुए भी डिग्रियाँ न लेते थे। स्वभाव के इतने स्वतंत्र कि किसी से भी दबते न थे। और पारसी होते हुए भी अन्नाहारी थे ! पेस्तनजी ठीक वैसे नहीं माने जाते थे। पर उनकी होशियारी प्रसिद्ध थी। उनकी यह ख्याति विलायत में भी थी। किन्तु हमारे बीच के सम्बन्ध का मूल तो उनका अन्नाहार था। उनकी बुद्धिमत्ता की बराबरी करना मेरी शक्ति के बाहर था।

बम्बई में मैंने पेस्तनजी को खोज निकाला। वे हाईकोर्ट प्रोथोनोटरी (मुख्य लेखक) थे। मैं जब मिला तब वे बृहद गुजराती शब्दकोश के काम ने लगे हुए थे। दक्षिण अफ्रीका के काम में मदद माँगने की दृष्टि से मैंने एक भी मित्र को छोड़ा नहीं था। पेस्तनजी पादशाह तो मुझे भी दक्षिण अफ्रीका न जाने की सलाह दी। बोले, 'मुझ से आपकी मदद क्या होगी? पर मुझे आपका दक्षिण अफ्रीका लौटना ही पसन्द नहीं हैं। यहाँ अपने देश में ही कौन कम काम हैं? देखिये, अपनी भाषा की ही सेवा का कितना बड़ा काम पड़ा हैं? मुझे विज्ञान-सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों के पर्याय ढूँढने हैं। यह तो एक ही क्षेत्र है। देश की गरीबी का विचार कीजिये। दक्षिण अफ्रीका में हमारे भाई कष्ट में अवश्य हैं, पर उसमें आपके जैसे आदमी का खप जाना मैं सहन नहीं कर सकता। यदि हम यहाँ अपने हाथ में राजसत्ता ले ले, तो वहाँ उनकी मदद अपने आप हो जायगी। आपको तो मैं समझा नहीं सकता, पर आपके जैसे दूसरे सेवको को आपके साथ कराने में मैं भी मदद नहीं करूँगा।' ये वचन मुझे अच्छे न लगे। पर पेस्तनजी पादशाह के प्रति मेरा आदर बढ़ गया। उनका देशप्रेम और भाषाप्रेम देखकर मैं मुग्ध हो गया। इस प्रसंग से हमारे बीच की प्रेमगाँठ अधिक पक्की हो गयी। मैं उनके दृष्टिकोण को अच्छी तरह समझ गया। पर मुझे लगा कि दक्षिण अफ्रीका का काम छोडने के बदले उनकी दृष्टि भी मुझे उसमें अधिक जोर से लगे रहना चाहिये। देशभक्त को देशसेवा के एक भी अंग की यथासम्भव उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, और मेरे लिए तो गीता के यह श्लोक तैयार ही था :

श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। गीता अ.3 श्लोक 35।।

ऊँचे परधर्म से नीचा स्वधर्म अच्छा हैं। स्वधर्म में मौत भी अच्छी हैं, परधर्म भयावह हैं।

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