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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


सो कुछ भी हो, भागने के काम में उलझ जाने से मैं अपनी चोटों को भूल गया। मैंने हिन्दुस्तानी सिपाही की वर्दी पहनी। कभी सिर पर मार पड़े तो उससे बचने के लिए माथे पर पीतल की तश्तरी रखी और ऊपर से मद्रासी तर्ज का बड़ा साफा बाँधा। साश में खुफिया पुलिस के दो जवान थे। उनमे से एक ने हिन्दुस्तानी व्यापारी की पोशाक पहनी और अपना चहेरी हिन्दुस्तानी की तरह रंग लिया। दुसरे ने क्या पहना, सो मैं भूल गया हूँ। हम बगल की गली में होकर पड़ोस की दुकान में पहुँचे और गोदाम में लगी हुई बोरों की थप्पियों को अंधेरे में लाँधते हुए दुकान के दरवाजे से भीड़ में घुस कर आगे निकल गये। गली के नुक्कड़ पर गाड़ी खड़ी थी उसमें बैठकर अब मुझे उसी थाने में ले गये, जिसमे आश्रय लेने की सलाह सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर ने पहले दी थी। मैंने सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर और खुफिया पुलिस के अधिकारियों को धन्यवाद दिया।

इस प्रकार जब एक तरफ से मुझे ले जाया जा रहा था, तब दूसरी तरफ सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर भीड़ से गाना गवा रहे थे। उस गीत का अनुवाद यह हैं :

'चलो, हम गाँधी के फांसी पर लटका दे, इमली के उस पेड़ पर फांसी लटका दे।'

जब सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर को मेरे सही-सलामत थाने पर पहुँच जाने की खबर मिली तो उन्होंने भीड़ से कहा, 'आपका शिकार तो इस दुकान से सही सलामत निकल भागा हैं।' भीड़ में किसी को गुस्सा आया, कोई हँसा, बहुतों नें इस बात को मानने से इन्कार किया।

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