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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि मुझे ये चीजे रखनी ही नहीं चाहिये। पारसी रुस्तमजी आदि को इन गहनो का ट्रस्टी नियुक्त करके उनके नाम लिखे जाने वाले पत्र का मसविदा मैंने तैयार किया, और सबेरे स्त्री-पुत्रादि से सलाह करके अपना बोझ हलका करने का निश्चय किया।

मैं जानता था कि धर्मपत्नी को समझाना कठिन होगा। बच्चो को समझाने में जरा भी कठिनाई नहीं होगी, इसका मुझे विश्वास था। अतः उन्हे इस मामले में वकील बनाने का मैंने निश्चय किया।

लड़के तो तुरन्त समझ गये। उन्होंने कहा, 'हमें इन गहनो की आवश्यकता नहीं हैं। हमे ये सब लौटा ही देने चाहिये। और जीवन में कभी हमे इन वस्तुओ की आवश्यकता हुई तो क्या हम स्वयं न खरीद सकेगे?'

मैं खुश हुआ। मैंने पूछा, 'तो तुम अपनी माँ को समझाओगे न?'

'जरूर, जरूर। यह काम हमारा समझिये। उसे कौन ये गहने पहनने है? वह तो हमारे लिए ही रखना चाहती हैं। हमें उनकी जरूरत नहीं हैं, फिर वह हठ क्यों करेगी?'

पर काम जितना सोचा था उससे अधिक कठिन सिद्ध हुआ।

'भले आपको जरूरत न हो और आपके लड़को को भी न हो। बच्चो को तो जिस रास्ते लगा दो, उसी रास्ते वे लग जाते हैं। भले मुझे न पहनने दे, पर मेरी बहुओ का क्या होगा? उनके तो ये चीजे काम आयेगी न? और कौन जानता है कल क्या होगा? इतने प्रेम से दी गयी चीजे वापस नहीं दी जा सकती।' पत्नी की वाग्धारा चली और उसके साथ अश्रुधारा मिल गयी। बच्चे ढृढ़ रहे। मुझे तो डिगना था ही नहीं।

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