जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
गोखले की काम करने की रीति से मुझे जितना आनन्द हुआ उतनी ही शिक्षा भी मिली। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। मैंने अनुभव किया कि उनके सारे देशकार्य के निमित्त से ही थे। सारी चर्चायें भी देशकार्य के खातिर ही होती थी। उनकी बातों में मुझे कही मलिनता, दम्भ अथवा झूठ के दर्शन नहीं हुए। हिन्दुस्तान की गरीबी और गुलामी उन्हें प्रतिक्षण चुभती थी। अनेक लोग अनेक विषयों में उनकी रुचि जगाने के लिए आते थे। उन सबको वे एक ही जवाब देते थे, 'आप यह काम कीजिये। मुझे अपना काम करने दीजिये। मुझे तो देश की स्वाधीनता प्राप्त करनी हैं। उनके मिलने पर ही मुझे दूसरा कुछ सूझेगा। इस समय तो इस काम से मेरे पास एक क्षण भी बाकी नहीं बचता।'
रानडे के प्रति उनका पूज्यभाव बात-बात में देखा जा सकता था। 'रानडे यह कहते थे' - ये शब्द तो उनकी बातचीत में लगभग 'सूत उवाच' जैसे हो गये थे। मैं वहाँ था उन्हीं दिनों रानेडे की जयन्ती ( अथवा पुण्यतिथि, इस समय ठीक याग नहीं हैं ) पड़ती थी। ऐसा लगा कि गोखले उसे हमेशा मनाते थे। उस समय वहाँ मेरे सिवा उनके मित्र प्रो. काथवटे और दूसरे एक सज्जन थे, जो सब-जज थे। इनको उन्होंने जयन्ती मनाने के लिए निमंत्रित किया औऱ उस अवसर पर उन्होंने हमें रानेडे के अनेक संस्मरण सुनाये। रानडे, तैलंग और मांडलिक की तुलना भी की। मुझे स्मरण है कि उन्होंमे तैलंग की भाषा की प्रशंसा की थी। सुधारक के रुप में मांडलिक की स्तुति की थी। अपने मुवक्किल की वे कितनी चिन्ता रखते थे, इसके दृष्टान्त के रुप में यह किस्सा सुनाया कि एक बार रोज की ट्रेन छूट जाने पर वे किस तरह स्पेशन ट्रेन से अदालत पहुँचे थे। और रानडे की चौमुखी शक्ति का वर्णन करके उस समय के नेताओं में उनकी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध की थी। रानडे केवल न्यायमूर्ति नहीं थे, अर्थशास्त्री थे, सुधारक थे। सरकारी जज होते हुए भी वे कांग्रेस में दर्शक की तरह निडर भाव से उपस्थित होते थे। इसी तरह उनकी बुद्धिमत्ता पर लोगों को इतना विश्वास था कि सब उनके निर्णय को स्वीकार करते थे। यह सब वर्णन करते हुए गोखले के हर्ष की की सीमा न रहती थी।
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