जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मन्दिर में पहुँचने पर दरवाजे के सामने बदबूदार सड़े हुए फुल मिले। अन्दर बढिया संगमरमर का फर्श था। पर किसी अन्ध श्रद्धालु ने उसे रुपयो से जडवाकर खराब कर डाला था और रुपयों में मैंल भर गया था।
मैं ज्ञानवापी के समीप गया। वहाँ मैंने ईश्वर को खोजा, पर वह न मिला। इससे मैं मन ही मन क्षुब्ध हो रहा था। ज्ञानवापी के आसपास भी गंदगी देखी। दक्षिणा के रुप में कुछ चढाने की श्रद्धा नहीं थी। इसलिए मैंने सचमुच ही एक पाई चढायी, जिससे पुजारी पंड़ाजी तमतमा उठे। उन्होंने पाई फैक दी। दो-चार गालियाँ देकर बोले, 'तू यो अपमान करेगा तो नरक में पडेगा।'
मैं शान्त रहा। मैंने कहा, 'महाराज, मेरा तो जो होना होगा सो होगा, पर आपके मुँह में गाली शोभ नहीं देती। यह पाई लेनी हो तो लीजिये, नहीं तो यह भी हाथ से जायेगी।'
'जा, तेरी पाई मुझे नहीं चाहिये, ' कह कर उन्होंने मुझे दो-चार और सुना दीं। मैं पाई लेकर चल दिया। मैंने माना कि महाराज ने पाई खोयी और मैंने बचायी। पर महाराज पाई खोनेवाले नहीं थे। उन्होंने मुझे वापस बुलाया और कहा, 'अच्छा, धर दे। मैं तेरे जैसा नहीं होना चाहता। मैं न लूँ तो तेरा बुरा हो।'
मैंने चुपचाप पाई दे दी और लम्बी साँस लेकर चल दिया। इसके बाद मैं दो बार औऱ काशी-विश्वनाथ के दर्शन कर चुका हूँ, पर वह तो 'महात्मा' बनने के बाद। अतएव 1902 के अनुभव तो फिर कहाँ से पाता ! मेरा 'दर्शन' करनेवाले लोग मुझे दर्शन क्यों करने देते? 'महात्मा' के दुःख तो मेरे जैस 'महात्मा' ही जानते हैं। अलबत्ता, गन्दगी औऱ कोलाहल तो मैंने पहले के जैसा ही पाया।
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