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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

फिर दक्षिण अफ्रीका में


मणीलाल स्वस्थ तो हुआ, पर मैंने देखा कि गिरगाँव वाला घर रहने योग्य नहीं था। उसमें सील थी। पर्याप्त उजाला नहीं था। अतएव रेवा-शंकर भाई से सलाह करके हम दोनों ने बम्बई के किसी उपनगर में खुली जगह बंगला लेने का निश्चय किया। मैं बांदरा, सांताक्रूज वगैरा में भटका। बांदरा में कसाईखाना था, इसलिए वहाँ रहने की हमने से किसी की इच्छा नहीं हुई। घाटकोपर वगैरा समुद्र से दूर लगे। आखिर सांताक्रूज में एक सुन्दर बंगला मिल गया। हम उसमें रहने गये और हमने यह अनुभव किया कि आरोग्य की दृष्टि से हम सुरक्षित हो गये हैं। मैंने चर्चगेट जाने के लिए पहले दर्जे का पास खरीद लिया। पहले दर्जे में अकसर मैं अकेला ही होता था, इससे कुछ गर्व का भी अनुभव करता था, ऐसा याद पड़ता हैं। कई बार बांदरा से चर्चगेट जाने वाली खास ट्रेन पकड़ने के लिए मैं सांताक्रूज से बांदरा तक पैदल जाता था।

मैंने देखा कि मेरा धंधा आर्थिक दृष्टि से मेरी अपेक्षा से अधिक अच्छा चल निकला। दक्षिण अफ्रीका के मुवक्किल मुझे कुछ-न-कुछ काम देते रहते थे। मुझे लगा कि उससे मेरा खर्च सरलता-पूर्वक चल जाएगा।

हाईकोर्ट का काम तो मुझे अभी कुछ न मिलता था। पर उन दिनों 'मूट' (अभ्यास के लिए फर्जी मुकदमे में बहस करना) चलती थी, मैं उसमें मैं जाया करता था। चर्चा में सम्मिलित होने की हिम्मत नहीं थी। मुझे याद है कि उसमें जमियतराम नानाभाई अच्छा हिस्सा लेते थे। दूसरे नये बारिस्टरो की तरह मैं भी हाईकोर्ट में मुकदमे सुनने जाया करता था। वहाँ तो कुछ जानने को मिलता, उसकी तुलना में समुद्र की फरफराती हुई हवा में झपकियाँ लेने में अधिक आनन्द आता था। मैं दूसरे साथियो को भी झपकियाँ लेते देखता था, इससे मुझे शरम न मालूम होती थी। मैंने देखा कि झपकियाँ लेना फैशन में शुमार हो गया था।

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