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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


वेस्ट के हर्ष का पार न रहा। उन्होंने काम करते हुए भजन गाना शुरू किया। चक्र चलाने में बढ़इयों की बराबरी में मैं खड़ा हुआ औऱ दुसरे सब बारी बारी से खड़े हुए। काम निकलने लगा। सुबह के लगभग सात बजे होगे। मैंने देखा कि काम अभी काफी बाकी है। मैंने वेस्ट से कहा, 'क्या अब इजीनियर को जगाया नहीं जा सकता? दिन के उजेले में फिर से मेंहनत करे तो संभव है कि एंजिन चलने लगे और हमारा काम समय पर पूरा हो जाय।'

वेस्ट ने इंजीनियर को जगाया। वह तुरन्त उठ गया और एंजिन घक में धुस गया। छूते ही एंजिन चलने लगा। छापाखाना हर्षनाद से गूँज उठा। मैंने कहा, 'ऐसा क्यों होता है? रात में इतनी मेंहनत करने पर भी नहीं चला और अब मानो कोई दोष न हो इस तरह हाथ लगाते ही चलने लग गया !'

वेस्ट ने अथवा इंजीनियर ने जवाब दिया, 'इसका उत्तर देना कठिन हैं। कभी कभी यंत्र भी ऐसा बरताव करते पाये जाते है, मानो हमारी तरह उन्हें भी आराम की आवश्यकता हो !'

मेरी तो यह धारणा रही कि एंजिन का न चलना हम सब की एक कसौटी थी और ऐन मौके पर उसका चल पडना शुद्ध परिश्रम का शुद्ध फल था। अखबार समय से स्टेशन पर पहुँच गया और हम सब निश्चित हुए।

इस प्रकार के आग्रह का परिणाम यह हुआ कि अखबार की नियमितता की धाक जम गयी और फीनिक्स के परिश्रम का वातावरण बना। इस संस्था में एक ऐसा भी युग आया कि जब विचार पूर्वक एंजिन चलाना बन्द किया गया और ढृढता पूर्वक चक्र से ही काम लिया गया। मेरे विचार में फीनिक्स का वह ऊँचे से ऊँचा नैतिक काल था।

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