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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैंने उसी दिन डरबन की ट्रेन पकड़ी। डरबन पहुँचा। डॉक्टर ने मुझे से कहा, ' मैंने तो शोरवा पिलाने के बाद ही आपको टेलीफोन किया था !'

मैंने कहा, 'डॉक्टर, मैं इसे दगा समझता हूँ।'

डॉक्टर ने ढृढता पूर्वक उत्तर दिया, 'दवा करते समय मैं दगा-वगा नहीं समझता। हम डॉक्टर लोग ऐसे समय रोगी को अथवा उसके सम्बन्धियो को धोखा देने में पुण्य समझते है। हमारा धर्म तो किसी भी तरह रोगी को बचाना है।'

मुझे बहुत दुःख हुआ। पर मैं शान्त रहा। डॉक्टर मित्र थे, सज्जन थे। उन्होंने और उनकी पत्नि ने मुझ पर उपकार किया था। पर मैं उक्त व्यवहार सहन करने के लिए तैयार न था।

'डॉक्टर साहब, अब स्थिति स्पष्ट कर लीजिये। कहिये आप क्या करना चाहते है? मैं अपनी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना माँस नहीं खिलाने दूँगा। माँस ने लेने के कारण उसकी मृत्यु हो जाय, तो मैं उस सहने के लिए तैयार हूँ।'

'डॉक्टर बोले, आपकी फिलासफी मेरे घर में को हरजित नहीं चलेगी। मैं आपसे कहता हूँ कि जब तक अपनी पत्नी को आप मेरे घर में रहने देंगे, तब तक मैं उसे अवश्य ही माँस अथवा जो कुछ भी उचित होगा, दूँगा। यदि यह स्वीकार न हो तो आप अपनी पत्नी को ले जाइये। मैं अपने ही घर में जानबूझकर उसकी मृत्यु नहीं होने दूँगा।'

'तो क्या आप यह कहते है कि मैं अपनी पत्नी को इसी समय ले जाऊँ? '

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