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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


किन्तु एक ऐसी घटना घटी, जिसके कारण मैंने नमक का त्याग किया, जो लगभग दस वर्ष तक अखंड रूप से कायम रहा। अन्नाहार सम्बन्धी कुछ पुस्तक में मैंने पढा था कि मनुष्य के लिए नमक खाना आवश्यक नहीं है और न खानेवाले को आरोग्य की दृष्टि से लाभ ही होता है। यह तो मुझे सूझा ही थी कि नमक न खाने से ब्रह्मचारी को लाभ होता है। मैंने यह भी पढा और अनुभव किया था कि कमजोर शरीरवाले को दान न खानी चाहिये। किन्तु मैं उन्हें तुरन्त छोड़ न सका था। दोनों चीजे मुझे प्रिय थी।

यद्यपि उक्त शल्यक्रिया के बाद कस्तूरबाई का रक्तस्राव थोड़े समय के लिए बन्द हो गया था, पर अब वह फिर से शुरू हो गया और किसी प्रकार बन्द ही न होता था। अकेले पानी के उपचार व्यर्थ सिद्ध हुए। यद्यपि पत्नी को मेरे उपचारो पर विशेष श्रद्धा नहीं थी, तथापि उनके लिए तिरस्कार भी नहीं था। दूसरी दवा करने का आग्रह न था। मैंने उसे नमक और दाल छोड़ने के लिए मनाना शुरू किया। बहुत मनाने पर भी, अपने कथन के समर्थन के कुछ-न-कुछ पढ़कर सुनाने पर भी, वह मानी नहीं। आखिर उसने कहा, 'दाल और नमक छोड़ने को तो कोई आपसे कहे, तो आप भी न छोड़ेगे।'

मुझे दुःख हुआ और हर्ष भी हुआ। मुझे अपना प्रेम उंड़लने का अवसर मिला। उसके हर्ष में मैंने तुरन्त ही कहा, 'तुम्हारा यह ख्याल गलत है। मुझे बीमारी हो और वैद्य इस चीज को या दूसरी किसी चीज को छोड़ने के लिए कहे, तो मैं अवश्य छोड़ दूँ। लेकिन जाओ, मैंने एक साल के लिए दाल और नमक दोनों छोड़े। तुम छोड़ो या न छोड़ो, यह अलग बात है।'

पत्नी को बहुत पश्चाताप हुआ। वह कह उठी, 'मुझे माफ कीजिये। आपका स्वभाव जानते हुए भी मैं कहते कह गयी। अब मैं दाल औऱ नमक नहीं खाऊँगी, लेकिन आप अपनी बात लौटा ले। यह तो मेरे लिए बहुत बड़ी सजा है जायेगी।'

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