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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इस प्रकार सहज ही आश्रम में संयम का वातावरण बढ़ा। दूसरे उपवासो और एकाशनो में भी आश्रमवासी सम्मिलित होने लगे। और, मैं मानता हूँ कि इसका परिणाम शुभ निकला। सबके हृदयो पर संयम को कितना प्रभाव पड़ा, सबके विषयो को संयत करने में उपवास आदि ने कितना हाथ बँटाया, यह मैं निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता। पर मेरा अनुभव यह है कि उपवास आदि से मुझ पर तो आरोग्य और विषय-नियमन की दृष्टि से बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। फिर भी मैं यह जानता हूँ कि उपवास आदि से सब पर इस तरह का प्रभाव पड़ेगा ही, ऐसा कोई अनिवार्य नियम नहीं है। इन्द्रय दमन के हेतु से किये गये उपवास से ही विषयो को संयत करने का परिणाम निकल सकता है। कुछ मित्रों का यह अनुभव भी है कि उपवास की समाप्ति पर विषयेच्छा औऱ स्वाद तीव्र हो जाते है। मतलब यह कि उपवास के दिनो में विषय को संयत करने और स्वाद को जीतने की सतत भावनी बनी रहने पर ही उसका शुभ परिणाम निकल सकता है। यह मानना निरा भ्रम है कि बिना किसी हेतु के और बेमन किये जानेवाले शारीरिक उपवास का स्वतंत्र परिणाम विषय-वासना को संयत करने में आयेगा। गीताजी के दूसरे अध्याय का यह श्लोक यहाँ बहुत विचारणीय है :

विषया विनिर्वते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोडप्पस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।

(उपवासी के विषय उपवास के दिनो में शान्त होते है, पर उसका रस नहीं जाता। रस तो ईश्वर-दर्शन से ही -- ईश्वर प्रसाद से ही शान्त होता है।)

तात्पर्य यह है कि संयमी के मार्ग में उपवास आदि एक साधन के रूप में है, किन्तु ये ही सब कुछ नहीं है। और यदि शरीर के उपवास के साथ मन का उपवास न हो तो उसकी परिणति दंभ में होती है और वह हानिकारक सिद्ध होता है।

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