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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मेरा हृदय फूल उठा। मैं यह सोचकर खुश हुआ कि मुझे पैसा उगाने के धन्धे से मुक्ति मिल गयी और यह कि अब मुझे अपनी जवाबदारी पर नहीं चलना पड़ेगा, बल्कि हर परेशानी के समय मुझे रास्ता दिखाने वाला कोई होगा। इस विश्वास के काऱण मुझे ऐसा लगा मानो मेरे सिर का बड़ा बोझ उतर गया हो।

गोखने ने स्व. डाक्टर देव को बुलाकर कह दिया:'गाँधी का खाता अपने यहाँ खोल लीजिये और इन्हें आश्रम के लिए तथा अपने सार्वजनिक कार्यो के लिए जितनी रकम की जरूरत हो, आप देते रहिये।'

अब मैं पूना छोड़कर शान्तिनिकेतन जाने की तैयारी कर रहा था। अंतिम रात को गोखले ने मुझे रुचने वाली एक दावत दी और उसमें उन्होंने जो चीजे मैं खाता था उन्हीं का अर्थात् सूखे और ताजे फलों के आहार का ही प्रबन्ध किया। दावत की जगह उनके कमरे से कुछ ही दूर थी, पर उसमें भी सम्मिलित होने की उनकी हालत न थी। लेकिन उनका प्रेम उन्हें दूर कैसे रहने देता? उन्होंने आने का आग्रह किया। वे आये भी, पर उन्हें मूर्छा आ गयी ऐर वापस जाना पड़ा। उनकी ऐसी हालत जब-तब हो जाया करती थी। अतएव उन्होंने संदेशा भेजा कि दावत जारी ही रखनी हैं। दावत का मतलब था, सोसाइटी के आश्रम में मेंहमानघर के पासवाले आँगन में जाजम बिछाकर बैठना, मूंगफली, खजूर आदि खाना, प्रेमपूर्ण चर्चाये करना और एक दूसरे के दिलो को अधिक जानना।

पर गोखले की यह मूर्छा मेरे जीवन के लिए साधारण अनुभव बनकर रहने वाली न थी।

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