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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैंने स्वामीजी को उपर्युक्त बाते कह सुनायी और कहा, 'मैं जनेऊ तो धारण नहीं करुँगा। जिसे न पहनते हुए भी असंख्य हिन्दू हिन्दू माने जाते है, उसे पहनने की मैं अपने लिए कोई जरूरत नहीं देखता। फिर, जनेऊ धारण करने का अर्थ है दुसरा जन्म लेगा, अर्थात् स्वयं संकल्प-पूर्वक शुद्ध बनना, ऊर्ध्वगामी बनना। आजकल हिन्दू समाज और हिन्दुस्तान दोनों गिरी हालत में है। उसमें जनेऊ धारण करने का हमे अधिकार ही कहाँ है? हिन्दू समाज को जनेऊ का अधिकार तभी हो सकता है, जब वह अस्पृश्यता का मैंल धो डाले, ऊँच-नीच की बात भूल जाये, जड़ जमाये हुए दूसरे दोषो को दूर करे और चारो ओर फैले हुए अधर्म तथा पाखंड का अन्त कर दे। इसलिए जनेऊ धारण करने की आपकी बात मेरे गले नहीं उतरती। किन्तु शिखा के संबंध में आपकी बात मुझे अवश्य सोचनी होगी। शिखा तो मैं रखता था। लेकिन उसे मैंने शरम और डर के मारे ही कटा डाला है। मुझे लगता है कि शिखा धारण करनी चाहिये। मैं इस सम्बन्ध में अपने साथियो से चर्चा करूँगा। '

स्वामीजी को जनेऊ के बारे में मेरी दलील अच्छी नहीं लगी। जो कारण मैंने न पहनने के लिए दिये, वे उन्हें पहनने के पक्ष में दिखायी पड़े। जनेऊ के विषय में ऋषिकेश में मैंने जा विचार प्रकट किये थे, वे आज भी लगभग उसी रूप में कायम है। जब तक अलग-अलग धर्म मौजूद है, तब तक प्रत्येक धर्म को किसी विशेष बाह्य चिह्न की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन जब बाह्य संज्ञा केवल आडम्बर बन जाती है अथवा अपने धर्म को दूसरे धर्म से अलग बताने के काम आती है, तब वह त्याज्य हो जाती है। मैं नहीं मानता कि आजकल जनेऊ हिन्दू धर्म को ऊपर उठाने का साधन है। इसलिए उसके विषय में मैं तटस्थ हूँ।

शिखा का त्याग स्वयं मेरे लिए लज्जा का कारण था। इसलिए साथियो से चर्चा करके मैंने उसे धारण करने का निश्चय किया। पर अब हमे लछमन झूले की ओर चलना चाहिये।

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