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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


सन् 1917 के आरम्भ में कलकत्ते से हम दो क्यक्ति रवाना हुए। दोनों की एक सी जोड़ी थी। दोनों किसान जैसे ही लगते थे। राजकुमार शुक्ल जिस गाडी में ले गये, उस पर हम दोनों सवार हुए। सबेरे पटना उतरे।

पटना की मेरी यह पहली यात्रा थी। वहाँ किसी के साथ ऐसा परिचय नहीं था, जिससे उनके घर उतर सकूँ। मैंने यह सोच लिया था कि राजकुमार शुक्ल अनपढ़ किसान है, तथापि उनका कोई वसीला तो होगा। ट्रेन में मुझे उनकी कुछ अधिक जानकारी मिलने लगी। पटना में उनका परदा खुल गया। राजकुमार शुक्ल की बुद्धि निर्दोष थी। उन्होंने जिन्हे अपना मित्र मान रखा था वे वकील उनके मित्र नहीं थे, बल्कि राजकुमार शुक्ल उनके आश्रित जैसे थे। किसान मुवक्किल और वकील के बीच चौमासे की गंगा के चौड़े पाट के बराबर अन्तर था।

मुझे वे राजेनद्रबाबू के घर ले गये। राजेन्द्रबाबू पुरी अथवा और कहीं गये थे। बंगले पर एक-दो नौकर थे। मेरे साथ खाने की कुछ साम्रगी थी। मुझे थोडी खजूर की जरूरत थी। बेचारे राजकुमार शुक्ल बाजार से ले आये।

पर बिहार में तो छुआछात का बहुत कड़ा रिवाज था। मेरी बालटी के पानी के छींटे नौकर को भ्रष्ट करते थे। नौकर को क्या पता कि मैं किस जाति का हूँ। राजकुमार शुक्ल ने अन्दर के पाखाने का उपयोग करने को कहा। नौकर ने बाहर के पाखाने की ओर इशारा किया। मेरे लिए इससे परेशान या गुस्सा होने का कोई कारण न था। इस प्रकार के अनुभव कर-करके मैं बहुत पक्का हो गया था। नौकर तो अपने धर्म का पालन कर रहा था और राजेन्द्रबाबू के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर रहा था। इस मनोरंजक अनुभवो के कारण जहाँ राजकुमार शुक्ल के प्रति मेरा आदर बढा स वहाँ उनके विषय में मेरा ज्ञान भी बढा। पटना से लगाम मैंने अपने हाथ में ले ली।

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