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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


खाद्याखाद्य का निर्णय मेरे लिए केवल शास्त्रो के श्लोको पर अवलंबित नहीं था, बल्कि मेरे जीवन के साथ वह स्वतन्त्र रीति से जूड़ा हुआ था। चाहे जो चीज खाकर और चाहे जैसा उपचार करके जीने का मुझे तनिक लोभ न था। जिस धर्म का आचरण मैंने अपने पुत्रो के लिए किया, स्त्री के लिए किया, स्नेहियो के लिए किया, उस धर्म का त्याग मैं अपने लिए कैसे करता?

इस प्रकार मुझे अपनी इस लम्बी और जीवन की सबसे पहले इतनी बड़ी बीमारी में धर्म का निरीक्षण करने और उसे कसौटी पर चढाने का अलभ्य लाभ मिला। एक रात तो मैंने बिल्कुल ही आशा छोड़ दी थी। मुझे ऐसा भास हुआ कि अब मृत्यु समीप ही है। श्री अनसूयाबहन को खबर भिजवायी। वे आयी। वल्लभभाई आये। डॉक्टर कानूगा आये। डॉ. कानूगा ने मेरी नाड़ी देखी और कहा, 'मैं खुद तो मरने के कोई चिह्न देख नहीं रहा हूँ। नाड़ी साफ है। केवल कमजोरी के कारण आपके मन में घबराहट है।' लेकिन मेरा मन न माना। रात तो बीती। किन्तु उस रात मैं शायद ही सो सका होउँगा।

सवेरा हुआ। मौत न आयी। फिर भी उस समय जीने की आशा न बाँध सका और यह समझकर कि मृत्यु समीप है, जितनी देर बन सके उतनी देर तक साथियो से गीतापाठ सुनने में लगा रहा। कामकाज करने की कोई शक्ति रही ही नहीं थी। पढ़ने जितनी शक्ति भी नहीं रह गयी थी। किसी के साथ बात करने की भी इच्छा न होती थी। थोड़ी बात करके दिमाग थक जाता था। इस कारण जीने में कोई रस न रह गया था। जीने के लिए जीना मुझे कभी पसंद पड़ा ही नहीं। बिना कुछ कामकाज किये साथियो की सेवा लेकर क्षीण हो रहे शरीर को टिकाये रखने में मुझे भारी उकताहट मालूम होती थी।

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