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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इन सब दलीलों का मुझ पर असर हुआ। मैंने सोचा, मुश्किल हो चाहे न हो, पर लेटिन तो सीख ही लेनी हैं। फ्रेंच की शुरू की हुई पढ़ाई को पूरा करना हैं। इसलिए निश्चय किया कि दूसरी भाषा फ्रेंच हो। मैंट्रिक्युलेशन का एक प्राईवेट वर्ग चलता था। हर छठे महीने परीक्षा होती थी। मेरे पास मुश्किल से पाँच महीने का समय था। यह काम मेरे बूते के बाहर था। परिणाम यह हुआ कि सभ्य बनने की जगह मैं अत्यन्त उद्यमी विद्यार्थी बन गया। समय-पत्रक बनाया। एक-एक मिनट का उपयोग किया। पर मेरी बुद्धि या समरण-शक्ति ऐसी नहीं थी कि दूसरे विषयों के अतिरिक्त लेटिन और फ्रेंच की तैयारी कर सकूँ। परीक्षा में बैठा। लेटिन में फेल हुआ, पर हिम्मत नहीं हारा। लेटिन में रुचि हो गयी थी। मैंने सोचा कि दूसरी बार परीक्षा में बैठने से फ्रेच अधिक अच्छी हो जायेगी और विज्ञान में नया विषय ले लूंगा। प्रयोगों के अभाव में रसायनशास्त्र मुझे रुचता ही न था। यद्यपि अब देखता हूँ कि उसमें खूब रस आना चाहिये था। देश में तो यह विषय सीखा ही था, इसलिए लंदन की मैंट्रिक के लिए भी पहली बार इसी को पसन्द किया था। इस बार 'प्रकाश और उष्णता' का विषय लिया। यह विषय आसान माना जाता था। मुझे भी आसान प्रतित हुआ।

पुनः परीक्षा देने की तैयारी के साथ ही रहन-सबन में अधिक सादगी लाने का प्रयत्न शुरू किया। मैंने अनुभव किया कि अभी मेरे कुटुम्ब की गरीबी के अनुरुप मेरी जीवन सादा नहीं बना हैं। भाई की तंगी के और उनकी उदारता के विचारों ने मुझे व्याकुल बना दिया। जो लोग हर महीने 15 पौण्ड या 8 पौण्ड खर्च करते थे, उन्हें तो छात्रवृत्ति मिलती थी। मैं देखता था कि मुझसे भी अधिक सादगी से रहने वाले लोग हैं। मैं ऐसे गरीब विद्यार्थियों के संपर्क में ठीक-ठीक आया था। एक विद्यार्थी लंदन की गरीब बस्ती में हफ्ते के दो शिलिंग देकर एक कोठरी में रहता था, और लोकार्ट की कोको की सस्ती दुकान में दो पेनी का कोको और रोटी खाकर गुजारा करती था।

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