जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
उन दिनों मैं यह बिल्कुल नहीं जानता था कि धर्म क्या हैं, और वह हम में किस प्रकार काम करता हैं। उस समय तो लौकिक दृष्टि से मैं यहीं समझा कि ईश्वर ने मुझे बचा लिया हैं। पर मुझे विविध क्षेत्रो में ऐसे अनुभव हुए हैं। मैं जानता हूँ कि 'ईश्वर ने बचाया' वाक्य का अर्थ आज मैं अच्छी तरह समझने लगा हूँ। पर साथ ही मैं यह भी जानता हूँ कि इस वाक्य की पूरी कीमत अभी तक मैं आँक नहीं सका हूँ। वह तो अनुभव से ही आँकी जा सकती हैं। पर मैं कह सकता हूँ कि कई आध्यात्मिक प्रसंगों में वकालत के प्रसंगो में, संस्थाये चलाने में, राजनीति में 'ईश्वर नें मुझे बचाया हैं।' मैंने यह अनुभव किया हैं कि जब हम सारी आशा छोड़कर बैठ जाते हैं, हमारे हाथ टिक जाते हैं, तब कहीँ न कही से मदद आ ही पहुँचती हैं। स्तुति, उपासना, प्रार्थना वहम नहीं हैं, बल्कि हमारा खाना -पीना, चलना-बैठना जितना सच हैं, उससे भी अधिक सच यह चीज हैं। यह कहनें में अतिशयोक्ति नहीं कि यही सच हैं और सब झूठ हैं।
ऐसी उपासना, ऐसी प्रार्थना, निरा वाणी-विलास नहीं होती। उसका मूल कण्ठ नहीं, हृदय हैं। अतएव यदि हम हृदय की निर्मलता को पा ले, उसके तारो को सुसंगठित रखे, तो उनमें से जो सुर निकलते हैं, वे गगन गामी होते हैं। उसके लिए जीभ की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वभाव से ही अद्भूत वस्तु हैं। इस विषय में मुझे कोई शंका ही नहीं हैं कि विकार रुपी मलों की शुद्धि के लिए हार्दिक उपासना एक रामबाण औषधि हैं। पर इस प्रसादी के लिए हम में संपूर्ण नम्रता होनी चाहिये।
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