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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैंने उन वयोवृद्ध मित्र का बहुत आभार माना। उनकी उपस्थिति में तो मेरा भय क्षण भर के लिए दूर हो गया। पर बाहर निलकने के बाद तुरन्त ही मेरी घबराहट फिर शुरू हो गयी। चेहरा देखकर आदमी को परखने की बात को रटता हुआ और उन दो पुस्तकों का विचार करता हुआ मैं घर पहुँचा। दुसरे दिन लेवेटर की पुस्तक खरीदी। शेमलपेनिक की पुस्तक उस दुकान पर नहीं मिली। लेलेटर की पुस्तक पढ़ी, पर वह तो स्नेल से भी अधिक कठिन जान पड़ी। रस भी नहीं के बराबर ही मिला। शेक्सपियर के चेहरे का अध्ययन किया। पर लंदन की सडको पर चलने वाले शेक्सपियरों को पहचाने की कोई शक्ति तो मिली ही नहीं।

लेवेटर की पुस्तक से मुझे कोई ज्ञान नहीं मिला। मि. पिंकट की सलाह का सीधा लाभ कम ही मिला, पर उनके स्नेह का बड़ा लाभ मिला। उनके हँसमुख और उदार चेहरे की याद बनी रही। मैंने उनके इन वचनों पर श्रद्धा रखी कि वकालत करने के लिए फीरोजशाह महेता की होशियारी औऱ याददाशत की वगैरा की जरूरत नहीं हैं, प्रामाणिका और लगन से काम चल सकेगा। इन दो गुणो की पूंजी तो मेरे पास काफी मात्रा में थी। इसलिए दिल में कुछ आशा जागी।

के और मेंलेसन की पुस्तक विलायत में पढ़ नहीं पाया। पर मौका मिलते ही उसे पढ डालने का निश्चय किया। यह इच्छा दक्षिण अफ्रीका में पूरी हुई।

इस प्रकार निराशा में तनिक सी आशा का पटु लेकर मैं काँपते पैरो 'आसाम' जहाज से बम्बई के बन्दरगाह पर उतरा। उस समय बन्दरगाह में समुद्र क्षुब्ध था, इस कारण लांच (बडी नाव) में बैठकर किनार पर आना पड़ा ।

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