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विजय, विवेक और विभूति

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :31
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9827

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विजय, विवेक और विभूति का तात्विक विवेचन


‘गीता’ का मूल तत्त्व यही है कि आप लड़ाई लड़कर जो विजय प्राप्त करेंगे, वह विजय सच्ची विजय नहीं है, उस विजय के मूल में कौन-सी प्रेरणा है? उसका सांकेतिक अर्थ यह हुआ कि अर्जुन यदि अपनी इच्छा से युद्ध कर रहा होता तो वह एक अलग युद्ध होता, किन्तु जब भगवान् ने अर्जुन को प्रेरित किया और अर्जुन निमित्त बन गया और निमित्त-यन्त्र बनकर उसने युद्ध किया तो एक अन्तर यह भी आ गया कि युद्ध कर्त्तत्व के अभिमान से युक्त होकर भी लड़ा जा सकता था और निमित्त बनकर भी लड़ा जा सकता था, परन्तु ‘गीता’ के अभाव में वह कर्त्ता बनकर लड़ता, निमित्त बनकर न लड़ता। भगवान् ने मानो अर्जुन को एक दृष्टि दे दी –

भयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।

- गीता 11/33


अर्जुन ने कहा कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा –

करिष्ये  वचनं  तव। - गीता 18/73

अतः अर्जुन को भगवान् ने युद्ध करने की आज्ञा दी और अर्जुन ने निमित्त बनकर युद्ध किया, इसलिए किसी साम्राज्य की भौतिक इच्छा की पूर्ति के स्थान पर वह युद्ध एक दिव्य युद्ध बन गया। ‘रामायण’ में भी हनुमान् जी भगवान् से यही कहते हैं कि मैंने कुछ नहीं किया, सारे कार्य आपके प्रताप ने किए हैं –

नाधि  सिंधु  हाटकपुर   जारा।
निसिचरगन बधि बिपिन उजारा।।
तो  सब   तव  प्रताप  रघुराई।
नाथ  न  कहू मोरि   प्रभुताई।। 5/32/8-9

भगवान् ने अर्जुन को ‘गीता’ के द्वारा जो विवेक दिया और उस विवेक के साथ-साथ जब विजय प्राप्त हुई तो उस विजय में अर्जुन को गर्व नहीं हुआ कि मैंने जीता है, जैसा गर्व रावण को हराकर बालि और सहस्रार्जुन को हुआ था।

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