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कामना और वासना की मर्यादा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :50
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9831

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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।


कामना और वासना की मर्यादा


इच्छाएँ और उनका सदुपयोग

मनुष्य इच्छाओं का पुतला है। उसके व्यावहारिक जीवन में प्रतिक्षण अनेकों आकांक्षाएँ उठा करती हैं। स्वास्थ्य की, धन की, स्त्री और यश की अनेकों कामनाएँ प्रत्येक मनुष्य में होती हैं। इसके विविध काल्पनिक चित्र मस्तिष्क में बनते बिगड़ते रहते हैं। जैसे ही कोई इच्छा स्थिर हुई कि मानसिक शक्तियाँ उसी की पूर्ति में जुट पड़ीं, शारीरिक चेष्टाएँ उसी दिशा में कार्य करने लगती हैं। संसार की विभिन्न गतिविधियाँ व क्रिया-कलाप चाहे वे भौतिक हों अथवा आध्यात्मिक, इच्छाओं की पृष्ठभूमि पर निरूपित होते हैं। रचनात्मक कदम तो पीछे का है, पहले तो सारी योजनाओं को निर्धारित कराने का श्रेय इन्हीं इच्छाओं को ही है।

स्थिर तालाब के जल में जब किसी मिट्टी के ढेले या कंकड़ को फेंकते हैं तो उसमें लहरें उठने लगती हैं। पत्थर के भार व फेंकने की गति के अनुरूप ही लहरों का उठना, तेजी व सुस्त गति से होता है। ठीक इसी प्रकार हमारी इच्छाएँ क्या हैं, यह हमारी शारीरिक चेष्टाएँ चेहरे के हाव-भाव बताते रहते हैं। व्यभिचारी व्यक्ति की आंखों से हर क्षण निर्लज्जता के भाव परिलक्षित होंगे। चेहरे का डरावनापन अपने आप व्यक्त कर देता है कि यह व्यक्ति चोर, डाकू, बदमाश है। कसाई की दुर्गंध से ही गाय यह पहचान लेती है कि वह वध करना चाहता है।

इसी प्रकार सदाचारी, दयाशील व्यक्तियों के चेहरे से सौम्यता का ऐसा माधुर्य टपकता है कि देखने वाले अनायास ही उनकी ओर खिंच जाते हैं। विचारयुक्त व गंभीर मुखाकृति बता देती है कि यह व्यक्ति विद्वान, चिंतनशील व दार्शनिक है। प्रेम व आत्मीयता की भावना से आप चाहे किसी जीव-जंतु को देखें, वह भयभीत न होकर आपके उदार भाव की अंतर्मन से प्रशंसा करने लगेगा।

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