धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
वासना की मूल प्रेरणा इंद्रिय सुख में ही नहीं, वरन संतान के रूप में अपनी अभिव्यक्ति के फलस्वरूप होती है। इंद्रिय सुख तो गौण है, स्थूल रूप में आत्माभिव्यक्ति के कार्यक्रम को रसपूर्ण बनाने के लिए प्रकृति प्रदत्त एक उपहार है। देखा जाता है कि इंद्रिय सुखों को पर्याप्त भोगकर भी संतान के अभाव में स्त्रीपुरुष अतृप्त और असंतुष्ट बने रहते हैं अतएव वासना संतान के रूप में आत्माभिव्यक्ति का प्रकृत स्पंदन है और इसके साथ स्त्री, संतान, परिवार की सेवा, उनका भरण-पोषण, सुख-सुविधा का महान उत्तरदायित्व जुड़े हुए हैं। किंतु इन महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों पर ध्यान न देने वाले, स्वेच्छाचारी इंद्रिय सुखों को ही वासना तृप्ति का आधार बनाकर चलते हैं तो उनमे इंद्रिय लोलुपता पैदा हो जाती है। लोग स्वास्थ्य और प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करके मनमानी करते हैं, फलस्वरूप यही वासना विष-बेल बनकर मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। ऐसे लोग नारकीय जीवन बिताते हैं। आंतरिक अशांति, क्लेश के साथ अनेक बीमारियों, रोग, दुर्बलताओं के शिकार होकर स्वयं दीनहीन असमर्थ बन जाते हैं। वासना अपना मूल्य चाहती है। संतान, स्त्री, परिवार की सेवा, भरण-पोषण, उनकी सुख-सुविधाओं में अपने आपको उत्सर्ग करके जो इस मूल्य को नहीं चुकाता और मनमाने ढंग से इंद्रिय सुखों में ही वासना तृप्ति का आधार ढूँढता है उसे सदैव अशांत, उद्विग्न, दुखी, क्लेशमय जीवन बिताना पड़े, तो कोई आश्चर्य नहीं।
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