धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
|
0 |
कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
लेने और देने का, संग्रह और त्याग का, सुख पाने और सुख देने का, आनंद लेने और दूसरों को आनंदित करने का दोतरफा प्रयत्न ही मनुष्य के संतोष और सुख का आधार बनता है। इन दोनों प्रक्रियाओं में से एक के अभाव में भी मनुष्य अपनी कामना और वासनाओं की ठीक-ठीक तृप्ति नहीं कर सकता और वह सदैव अतृप्त, अशांत, उद्विग्न ही रहता है। दूसरे शब्दों में दूसरों को सुखी करने, पर हित साधना में किए गए आत्मोत्सर्ग, त्याग की प्रक्रिया में प्राप्त होने वाला आनंद ही मनुष्य की वासना और कामनाओं को तृप्त करता है। दूसरों के लिए आत्म त्याग, आत्मोत्सर्ग की यह प्रवृत्ति जितनी बढ़ती जाएगी उतनी ही मनुष्य की वासना और कामनाएँ शुद्ध स्वरूप में उत्कृष्ट होती जाएँगी और मनुष्य का जीवन भी विकास तथा उन्नति की मंजिल पर अग्रसर होता जाएगा।
अपनी शक्ति, साधन, संग्रह को दूसरों के धारण, पोषण, अभिवर्द्धन में लगा देने पर, दूसरों को सुखी, आनंदित बनाने के लिए प्रेम और त्याग की भावना से किया गया उत्सर्ग, त्याग का स्तर ज्यों-ज्यों बढ़ता जाएगा उसी के अनुसार मनुष्य उच्चकोटि की स्थिति प्राप्त करता जाएगा। सब के हित, लाभ, कल्याण की बात सोचने वाले, सबसे प्रेम और अनुराग रखने वाले, सर्वात्मा में रमण करने वाले, सबके लिए अपना उत्सर्ग और त्याग करने वाले व्यक्ति ही महापुरुष, महानुभाव, महात्माओं की श्रेणी में आते हैं।
|